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________________ 63 को प्रभूवीर एवं उपसर्ग पड़ता है भी सही... देवमाया होने से छिप भी जाते और प्रभु के अचिन्त्य प्रभाव होने से फिर देह का सौन्दर्य प्रगट हो जाये ऐसा भी बन सकता है । संगम प्रभु को पीड़ा देकर खुश होता है। लेकिन अपने विभंगज्ञान से प्रभु के चित्त की स्थिरता देखकर दुःखी भी होता है। उसको ऐसा भी होता है कि अब ये चलायमान नहीं होंगे तो मेरा क्या होगा? मेरी प्रतिज्ञा का क्या ? लोक व देवताओं को कैसे मुहदिखाऊंगा? ग्रन्थकारं भी लिखते हैं कि 'तेहिंपि अभिभवियं भगवओ सरीरं, न उण ईसिं पिसत्तं'अर्थात् इन नेवलाओं ने भगवान के शरीर ध्यानस्थ मुद्रा में निश्चल प्रभु को देखते हुए संगमदेव । को पराभव किया, लेकिन सत्व को लेशमात्र भी पराभूत नहीं कर सके। . सच्ची बात यह है कि हम सभी शरीर को मैं या मेरा मानते आये हैं। पड़ोसी के घर से मारा जाय अथवा आग लगे उससे आपको क्या लगता है? अधिक से अधिक अपने घर के बैठक पर बैठे-बैठे उसकी चिंता होगी। क्या सही है न ? शरीर को पड़ोसी माने तो ? कषाय की उपस्थिति में प्रभु की यह अवस्था होने से ही जाने कि कवि की उपेक्षा हमलोगों को कल्पसूत्र में पढनेसुनने के लिये मिल रही होगी न? संसार का नाश और रक्षण करने की अद्भुत क्षमता होने पर भी अपराधी संगम की प्रभु ने उपेक्षा ही की न? इसी से उस क्रोधको हुआ कि ऐसे अवसर पर भी तुम्हें हमारी जरूरत नहीं ? जाने कि क्रोधको क्रोधआया और क्रोधप्रभु को छोड़कर चला गया। हमलोगों को तो यारी (क्रोधसे ) हैं न? सम्भालकर रखे तो उसे पोषण मिलता है न ? जीवन में जैसे आगे बढते हैं वैसे कषाय भी बढते हैं या घटते हैं?
SR No.002241
Book TitlePrabhu Veer evam Upsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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