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• प्रभूवीर एवं उपसर्ग
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सर्व-सही देता है तो कथापरीक्षा में पूरा आचारधर्म कड़ी पद्धति से बताया जाता है, साथ ही साथ उससे महान लाभ का भी वर्णन किया जाता है। इसके बाद परिचय परीक्षा फिर दीक्षा देने की बात, आज्ञा पालन की तैयारी हो तभी संसार तैरा जायेगा न ? श्रीनंदनराजर्षि तो आज्ञा के वफादार होकर जीये। जबरदस्त साधना की, अब तो जगदुद्धारक बननेवाले है । छब्बीसवाँ भव देवलोक का पूर्ण होते ही वे परम तारक की आत्मा देवाधिदेव के रूप में अवतार पानेवाली हैं, सताइसवें भव में भगवान महावीरदेव के जीवन संबंधी बातें आयेंगी,खास तो उपसर्गों की एवं संगमदेव द्वारा एक रात में बीस उपसर्ग की बात करने की अपनी इच्छा है।
कल्पसूत्र की कथा संसार के भव्यलोगोंका उंचे में उंचा आलंबन अर्थात् जैनशासन 'प्रधानं सर्वधर्माणां'कहकर अपने सभी उसके यशोगान करते हैं । उसके स्थापक श्रीअरिहंतदेव हैं । भगवान महावीरदेव इस अवसर्पिणी के अंतिम तीर्थपति हैं। उनके छब्बीस भव सुनने के बाद अब सत्ताइसवें भव की बात शुरु करते हैं। नन्दनराज ऋषि के भव में उपार्जित तीर्थंकर नामकर्म के साथ दसवें प्राणत देवलोक में जाकर वहां के आयुष्य को पूर्णकर, वे परमतारक की आत्मा आषाढ शुक्ल षष्ठी को च्यवन पाती हैं। मरीची के भव में उपार्जित
प्रभु का च्यवन कल्याणक ।