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प्रभूवीर एवं उपसर्ग ................................
25 यद्यपि आज श्रमणसंघ को भी आत्मनिरीक्षण करना जरूरी है सो निःशंक बात है।
शुखमार्णकी देशना - मरीची को रोग हुआ, महात्माओं के लिये न करने लायक विचार भी मन में आया। लेकिन क्षणभर में अपनी दुःस्थिति का ख्याल आते ही मन बदला, साथ ही मन में एक ऐसा विचार आया कि 'यदि इस रोग से बाहर निकलूं तो प्रव्रज्या के लिये आये कोई एक को स्वयं दीक्षा दूँकारण कि अकेले हाथ आपदाओं से पार उतरा नहीं जाता ।' अबतक जितने आये सबको प्रतिबोधदेकर प्रभु के पास व अन्य महात्माओं के पास दीक्षा हेतु भेजा।किसी एक को भी अपना शिष्य बनाने का विचार नहीं किया।आनेवाले को ऐसा ही कहा कि कल्याण करना है तो वहां (प्रभु के पास )जाओ, मेरे सामने देखना नहीं । लेकिन इस बिमारी ने इन्हें यह विचार उत्पन्न कराया। सुरव की इच्छा या सुख के साधन की अभिलाषा पाप के उदय से जगती है । यह अविरति स्वरूप है। इसमें ग्रस्त रहने पर मिथ्यात्व उदय में आते देर नही लगती। मरीची भवितव्यता के योग से अशाता टलते ही स्वस्थ हुआ, पहले की भांति विचरण और शुद्धमार्ग की धर्मदेशना करने लगा।
गड खोल का एकीकरण कपिल नामक एक राजपुत्र इनकी धर्मदेशना से प्रतिबोधपाया । यद्यपि उसे भी शुद्ध साधुपना का स्वरूप ही समझाया गया था। लेकिन उन्होंने कहा भगवन् ! आपंवेशअलग रखते ही।तथा बात अलग करते हो।सच्चाई क्या है? उस समय भी मरीची अपने आपको बचाव नहीं करता है। इन्हें भी दूसरे महात्मा केपास साधुपनास्वीकारने का मार्गदर्शन किया है।शिष्य की इच्छा जगने पर भी, आये हुए को हितभरी बात कहना कभी शक्य बनता है ? लेकिन भवितव्यता भयंकर थी,कपिल ने पूछा आपकेमार्ग में धर्म नहीं है?' यहाँ विषम परिस्थितिथी अपने आचरण में मार्ग ही नहीं ऐसा कहने की जगह कविला इत्थंपिइहयंपि'मात्र इस शब्द ने इन्हें एक कोडाकोडी संसार को बढ़ा दिया। जिनवचन से विरुद्ध प्ररूपणा प्रमाद से भी न होना चाहिये । इसकी सावधानी रखने हेतु ऐसा कहा गया है किसावध और निरवद्य भाषा का भेद जो न समझा सके उसके लिये बोलना भी योग्य नहीं है। फिर देशना देने की बात ही कहाँ है?