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प्रभूवीर एवं उपसर्ग
जंगल में भी महल की भांति पर्णकुटीर में रहना था । दास-दासी आदि से सेवा पाता था। अधिकारियों तथा मजदूरों पर मात्र ध्यान ही रखना था ।
मध्याहनकाल होते ही भोजन के लिये निमंत्रण आया, पेट में 'भूख' भी जोरो की लगी थी। लेकिन विवेकबल से 'अतिथि को भोजन कराये बिना भोजन नहीं करना' ऐसी पूर्व की अपनी प्रतिज्ञा याद आयी । अपनेलोगों में क्या आज ऐसी कोई प्रतिज्ञा है? अपने द्वार पर आये हुए महात्मा आदि के लिये अहोभाव कितना ? यह घटना एवं प्रतिज्ञा प्रेरणाकुंड की तरह नहीं लगती ? स्वयं अतिथि की शोध
नयसार जैन कुल में जन्म नहीं पाया है । आर्य-संस्कार की विरासत भी उन्हें जिस प्रकार की प्रतिज्ञा लेने के लिये प्रेरित एवं व पालन के लिये तत्पर करती है, इसे देखते ही स्वभावसिद्ध उनकी योग्यता की कल्पना की जा सकती है । लायकात एक सहज वस्तु है, जिसे माँगकर ली नहीं जा सकती । यह स्वभावशुद्ध गुण है। उसे प्रकट करना होता है। भगवान कौन व किस प्रकार बना जाता है, उसे समझने के लिये प्रभु का जीवनचरित्र कितना उपकारी है यह बात सहज ही समझ में आती है न ? अन्यशास्त्रों में भी मातृदेवो भव, पितृदेवो • भव, अतिथिदेवो भव तथा कन्या को पतिगृह जाने हेतु विदा करते समय पतिर्देवो भव आदि हितशिक्षा की सुनी जाती बातें भूमिका के गुण समान है। ऐसी योग्यतावाली आत्माएँ सामान्य निमित्त मिलते शीघ्रता से आगे बढने लगता है। तलहटी से शिखर तक पहुँचानेवाला यह सोपान है, मूल के कच्चे कभी सच्चे नहीं बन पातें ।
अन्यत्र भी अतिथि की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि
'तिथिपर्वोत्सवा सर्वे त्यक्ता येन महात्मना । अतिथिं तं विजानियात्छेषमभ्यागतं विदुः ॥ '
जो महात्माने धर्मसाधना के लिये तिथि-पर्व-उत्सव को गौण बनाये हैं, जो सदा एकसमान निश्चित साधना में अनुरक्त रहते हैं वे अतिथि है इसके अलावा मेहमान है। यह व्याख्या सच्चे अर्थों में सर्वसंग के त्यागियों के लिये लागु पड़े ऐसी है। नयसार की प्रतिज्ञा है कि अतिथि को भोजन कराये बिना भोजन करूं नही । इसके लिये सभी प्रकार के साधन संपन्न होते हुए भी, नौकरर-चाकर के होने पर भी स्वयं अतिथि की खोज में निकल पड़ते हैं क्यों ?