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इसके बाद सर्वतोमुखी विकास द्वारा उनकी गुणसमृद्धि का आविर्भाव होने लगता है। वे तारक सद्गुरु आदि निमित्तों से मिलते रहते हैं, फिर भी उनकी विशेषताएँ ही उसमें प्रधान घटक होती है, अर्थात् अपने आत्मीय योग्यता के द्वारा ही पानेवाले उन तारकों को बोधिभी वरबोधिकहा जाता है।सम्यक्त्व जब तक प्राप्त नहीं होता है तब तक श्रीअरिहंत की आत्मा के भवों की गणना होती नहीं हैं,आपलोगने सुना हैं न
'समकीत पामे जीवने, भवगणतीए गणाय,
जो पण संसारे भमे, तो पण मुगते जाय।' एक बार जीव सम्यक्त्व पा लेता है फिर उसके लिये संसार मुट्ठी में गिना जाता है। अर्धपुद्गलपरावर्त की अपेक्षा भी कम समय में जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
अंतोमुहुत्तमित्तंपि फासियं हुज्ज जेहिं समत्तं। . . .
तेसिं अवड्डपुद्गल परियट्टो चेव संसारो ॥१॥ ... ऐसा कहकर इसी बात को शास्त्र ने दोहराया है।
भगवान श्री अरिहंत देव की आत्माएँ भी समकीत पाती हैं इसके बाद भवों की गणना शुरु होती है। श्रीऋषभदेवजी का १३भव, श्रीशांतिनाथजीना का १२ भव, श्रीपार्श्वनाथजी का १० भव और श्री महावीरदेव का २७ भव क्यों? जब से हमारी आत्मा है तब से उनकी भी आत्मा है,अतः अपने संसार की भाँति ही उनके भी संसार होते हैं न? लेकिन इन भवों की गिनती सम्यक्त्व प्राप्ति से है।समकीत पाने के बाद जीव की दशा बदल जाती है, अर्थ-काम की ओर एवं विषय-कषाय की ओर दौड़ता हुआ मन समकीत प्राप्त होते ही उससे पराङ्मुख हो जाता है। अब आत्मा को अर्थ काम अनर्थकारी और विषय कषाय बंधनरूप लगता है। इससे संसार मुट्ठी में आ जाता है, सामान्यतया सम्यग्दृष्टियुक्त आत्माओं की ऐसी स्थिति होती है तो तारक श्री तीर्थंकरदेवों की आत्मा की बात ही क्या करनी?
प्रेरकघटना एवं प्रतिज्ञा हम सभी ने भगवान महावीर के जीवन को जानने का निर्णय किया है, वे तारक महावीर किस तरह बनें इसे जाननेके लिए पूर्वभव से समकितप्राप्ति पर्यन्त की बात बताने का विचार किया है। पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में नयसार नामक भव में एक गाँव में ठाकुर के रूप में रहे, वे जिस तरहसमकित पाए वह
प्रभूवीर एवं उपसर्ग
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