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लज्जा-लक्ष्मी-धृति और कीर्ति से तुम रहित हो। तुम्हें क्या धर्म-स्वर्ग या मोक्ष चाहिए? तुझे अपने धर्म-व्रत और धारणा छोड़ना पड़ेगा। व्रत खंडन करना पड़ेगा, यहतुझे पसन्द नहीं हैना? तूने प्रतिज्ञा की हैना? परन्तु सुनले,
तूने यदि व्रत नहीं छोड़ा तो मैं अपनी तलवार से तेरे टुकड़े-टुकड़े कर डालूँगा।
जिसके कारण तू दुर्ध्यान में जाकर अकाल में ही मर जाएगा। इस प्रकार दो-तीन बार कहे जाने के बावजूद वहमहानुभाव अडिग रहे। जरा सा भी उद्विग्न नहुओ। . उसे भय भी नलगा। सचमुच,
गृहस्थ होते हुए भी शरीर से कितने अलग रहें होंगे तब जाकर यह सम्भव हुआ होगा?
कैसा सत्त्व?
और तत्त्व कितना परिणत हुआ होगा? सत्व-तत्व से रहित व्यक्ति जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते, ऐसी अनुभूतिं वह करता था। गौर करने योग्य बात तो यह है कि ऐसे मरणान्तिक उपसर्ग में भी वह अपने धर्मस्थान में सुदृढ़ रहे । देवने तलवार फिरा दी परन्तु मानो तलवार की धार से तीक्ष्ण आज्ञा की धार पर वह अडिग और सुंदृढ़ बने रहे। .
. . पिशाचरूपधारी देव पौषधशाला से बाहर निकल गया।
उसके बाद मदमस्त विकराल हाथी का रूप और फुफकार मारते हुए सर्प का रूप धारण किया। .. उसे वेदना से व्याकुल बनाने के लिए देव ने सभी प्रयत्न किए।
परन्तु तीव्र वेदनाओं को शान्ति से सहन करते रहे।
तब देव ने देखा कि यह महानुभाव तो बिल्कुल निर्भीक है । मेरे जैसे कितनों के द्वारा उसे निर्ग्रन्थ प्रवचन से विचलित करना आसान नहीं है। तब वह धीरे-धीरे बाहर निकल जाता है और दिव्य देव का रूप धारण कर लेता है।
प्रभुवीर के दश श्रावक
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