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ने भी कहा : 'गौतम ! इस असत्यभाषण स्वरूप पापस्थान की तू आलोचना कर । और इस विषय में आनन्द श्रावक से क्षमायाचना कर ।' श्री गौतम स्वामीजी ने तुरन्त आनन्द के पास जाकर क्षमायाचना की और शुद्धि की।
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लोकोत्तरशासन ... महानुभावो ! जैनशासन का लोकोत्तरत्व समझने के लिए यह प्रसंग कैसा अद्भुत है ? एक महाज्ञानी भी छद्मस्थसुलभ अपनी भूल को स्वीकार करे ? भगवान भी अपने महान अन्तेवासी को उनकी भूल का और उनके कर्तव्य का ज्ञान कराए और मात्र 'सॉरी' नहीं, बल्कि दुष्कृत को मिथ्या करने की हृदय भावना का डंका बज उठे । ऐसा शासन प्राप्त कर और ऐसे दृष्टान्त सुनकर भी .
प्रभुवीर के दश श्रावक...........
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