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________________ अवधिज्ञान की प्राप्ति और सीमा शुभध्यान की श्रेणी में आगे बढ़ते उन महानुभाव को निर्मल अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ।पूर्व-पश्चिम और दक्षिण दिशा में लवण समुद्र में ५०० योजन तक के क्षेत्र का तथा उत्तर दिशा में क्षलहिमवंत पर्वत को वे देव और जान सकते हैं । उर्ध्व में सौधर्म देवलोक और नीचे चौरासी हजार वर्ष की स्थिति जहाँ है, ऐसे लोलुपाच्युत प्रतर, जो प्रथम रत्नप्रभा नारक में है, वहाँ तक के क्षेत्र को वे देख और जान. सकते हैं। जैनशास्त्रों में बतलाई गई भौगोलिक स्थिति के अनुसार भरतक्षेत्र के दक्षिणार्ध भरत में, मध्यखण्ड के मगधदेश में रहनेवाले आनन्द श्रावक को इतनी सीमा तक का अवधिज्ञान-दर्शन हुआ है । श्रावकधर्म की निर्मल आराधना उन्हें इतना ज्ञानी बना सकती है।आराधना का शुद्धबल ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की दीवार को भेद डालने में समर्थ होता है। आज भी आराधक आत्माएँ यहअनुभव कर सकती हैं। .. प्रभुवीर के दश श्रावक २३
SR No.002240
Book TitlePrabhu Veer ke Dash Shravak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size21 MB
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