SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शक्य नहीं है। वैराग्य ही धर्म की नींव है। वैराग्य के बिना त्याग कभी भी शोभित नहीं होता है।आज वैराग्य की ही सबसे बड़ी कमी दिखाई देती है। . श्रमणोपासक का सुरम्य जीवन साधु के व्रत महाव्रत कहलाते हैं। जिसमें मन-वचन-काया से महापापों का सर्वथा त्याग होता है। अतः साधुजीवन सर्वथा निष्पाप जीवन है। इसीलिए साधु-जीवन निर्भय और निर्दोष जीवन है। गृहस्थ के लिए यहजीवन शक्य नहीं है। अतः उसके लिए अणुव्रत हैं। जिनमें मन-वचन-काया से करने कराने के स्वरूप में त्याग इस महानुभाव ने किया है। शेष अनेक विकल्पों से पाप का त्याग कर श्रावक के जीवन को स्वीकार किया जा सकता है । जिन्हें श्रावक के व्रतो के भांगे कहे जाते है। भांगा अर्थात् विकल्प।जिनकी कुल संख्या तेरह सौ चौरासी करोड़, बारह लाख, सत्तासी हजार, दो सौ दो है। इनमें से किसी भी विकल्प से व्रत का स्वीकार करनेवाला देशविरति श्रावक कहलाता है। मन-वचन और काया तीनों द्वारा पाप हो सकता है। काया से पाप करने के लिए तो सबके पास साधन और सामग्री उपलब्धनहीं होती। अतः काया से तो मर्यादित संख्या में ही पाप होते हैं। इसकी अपेक्षा वचन-वाणी के उच्चारण के द्वार अधिक पाप होते हैं। मन के द्वारा किए जानेवाले पापों की तो बात ही क्या करनी ? इन तीनों प्रकार से कोई तो स्वयं पाप करता है। कोई दूसरों से कराता है। कोई पाप करनेवालों की प्रशंसा करता है या खुश होता है। इसमें भी कई विकल्प बन सकते हैं। इसप्रकार पाप के इन सारे प्रकारों में से श्रावक जिस मर्यादा से हिंसा-झूठ-चोरी-अब्रह्म और परिग्रह का त्याग कर सकता है, उसमें से आनन्द गाथापति ने प्रभु के पास दुविहं तिविहेणं अर्थात् मनसा-वाचाकर्मणा स्वयं नहीं करना और दूसरों से नहीं कराने का निर्णय किया है। और इसी क्रम से बारहव्रतों का स्वीकार किया है। ................ प्रभुवीर के दश श्रावक ११
SR No.002240
Book TitlePrabhu Veer ke Dash Shravak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy