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________________ प्रभु वचन के प्रति श्रद्धा और अभिव्यक्ति यह समाचार सुनकर आनन्द गाथापति भी स्नानादि से शुद्ध होकर उचित वस्त्रालंकारों से सुसज्जित होकर प्रभु के दर्शन के लिए प्रस्थान करते है। उसके मस्तक पर कोरंट वृक्ष की माला से सुशोभित छत्र है। अनेक महानुभावों से घिरा हुआ वह प्रभु के पास पहुँचते है। यथाविधिप्रदक्षिणा, वन्दना कर प्रभु के चरणों में बैठते है। उनकी उपासना करते है। प्रभुजी पर्षदा को धर्मदेशना देते हैं। युक्तियुक्त और दृष्टान्तों से पुष्ट प्रभु के वचनों से जन्म-मृत्यु आदि संसार की असारता का ज्ञान होता है, प्रभु वचनों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, आत्मज्ञान होता है, जीवन को सफल करने के मनोरथ प्रगट होते है। बाद वे, कहते हैः 'हेप्रभो ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन जिनशासन के प्रति श्रद्धा रखता हूँ।' उसे यथार्थ रूप में स्वीकार करता हूँ। आपजैसा कहते हैं। वह उसी प्रकार है। प्रभोअनेकराजराजेश्वर ने जिस प्रकार साधु-जीवन का स्वीकार किया है, उस प्रकार उसे स्वीकार करने में मैं समर्थ नहीं हूँ। मैं आपके पास बारहप्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार करना चाहता हूँ। प्रभुंउसके उत्तर में कहते हैं: . जहासुहं देवाणुप्पिया,मा पडिबंधं कुणह।अर्थात् महानुभाव जिस प्रकार सुख उत्पन्न हो,वैसा कर सकते हो। रागादिबंन्धन में न पड़ें। . यह सब सुनने के बाद हम समझ सकते हैं कि प्रभुवचन को उपयोगपूर्वक सुननेवाले उपयोगी महानुभाव के लिए प्रभु की देशना क्या काम करती है ? अब आनन्द श्रावक के द्वारा स्वीकार किये गए व्रतों का स्वरूप और उन्होंने की हुई मर्यादा अपने देखनी है। प्रभुजी की बातें सुनकर ऐसा लगता है कि स्वीकार करने योग्य साधुत्व ही है। परन्तु स्वयं की अशक्ति और आसक्ति का विचार करके श्रावक जीवन के व्रतो का भी जिस प्रकार स्वीकार करते है, वह देखकर निश्चय ही कहा जा सकता है कि वैराग्य की भूमिका तैयार हुए बिना मोक्षमार्ग का साधक बनना . प्रभुवीर के दश श्रावक १)
SR No.002240
Book TitlePrabhu Veer ke Dash Shravak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size21 MB
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