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________________ प्राकृत भाषासाहित्य में मनोवैज्ञानिक निरूपण महत्त्व सूत्रात्मक गाथा के रूप में प्रगट किया है। बुभुक्षितैय्यकिरणं न भुज्यते पिपासितेः काव्यरसो न पीयते । न च्छन्दसा केनचिदुद्धृतं कुलं हिरण्यमेवाजंयनिष्कलाः कलाः ॥ भूखे लोगों के द्वारा व्याकरण का भक्षण नहीं किया जाता, प्यासों के द्वारा काव्यरस का पान नहीं किया जाता । छन्द से कुल का उद्धार नहीं किया जाता, अत एव हिरण्य का ही उपार्जन करो, क्योंकि उसके बिना समस्त कलायें निष्फल है। मानवमन की उर्मि, आशा, आकांक्षा, वेदना, संवेदना सभी का मार्मिक निरूपण प्राकृत काव्य साहित्य में भी मिलता है। गाथासप्तशति के अधिकांश श्रृंगाररस से पूर्ण मुक्त को में प्रियमिलन का उल्लास और विरहीजनों की विरहदशा की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ मन और शरीर के भाव-विभाव का भी आंलेखन है। अन्यत्र भी अधिकांश रूप में मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित पात्र परिस्थितियों का वर्णन प्राप्त होता है । भास, अश्वघोष आदि के नाटकों के प्राकृतभाषा के संवादो में भी मानवमन के भीतर की चहल-पहल का सचोट आलेखन हुआ हैं। .. जैसे हमने पहले ही देखा कि मानवजीवन के विविध पहलूओं का ही प्रतिबिंब साहित्य में दृष्टिगोचर होता है। और मन ही मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा प्रेरक बल है। चाहे वहां वैज्ञानिक तरीके से मन का परीक्षण नहीं किया गया है • - अलबत्त दार्शनिक साहित्य में तो इस दृष्टि से भी मन का अभ्यास हुआ है - तथापि साहित्यमें मन केन्द्रवर्ती घटना के रूप में रहा है, और मनोवैज्ञानिक तथ्यों के. अन्वेषण में भी यह साहित्य अपना प्रदान कर सकता हैं । पादटीप . १. उत्तराध्ययन - २२ २. नियमसार, व्यवहारचरित्र, गाछा ५६ से ६५ उत्तराध्ययन - २४/१-२ ४. उत्तराध्ययन - २९/७ ५.. उत्तराध्ययन - ३४/३, ५६, ५७ ६. कुवलयमाला - परिच्छेद - २४३ संदर्भ ग्रंथ प्राकृतिक साहित्य का इतिहास - डॉ. जगदीशचंद्र जैन ..२. सम्बोधि - युवाचार्य महाप्रज्ञ ३. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन - भा. १-२, डो. सागरमल जैन नियमसार ५. समणसुत्तं ६. उत्तराध्ययन
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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