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प्राकृत भाषासाहित्य में मनोवैज्ञानिक निरूपण
शारीरिक क्रियाओं का और इसके परिणाम का यथातथ निरूपण किया है। रोहिणीज्ञात अध्ययन में धन्य सार्थवाहने चारों पुत्रवधूओं को गेहूँ के पाँच पाँच दाने दिये और उनका प्रतिभाव देख लिया । पुत्रवधूओं की कार्यक्षमताओं पहचान कर उनकी योग्यतानुसार प्रथम बहु को घर की रसोई बनाने का, रक्षिता को घर की सारी वस्तुओं की देखभाल करने का काम दिया और रोहिणी को घर का सारा कार्यभार सोंप दिया । यहाँ पुत्रवधूओं की कार्यक्षमता पहचानने का सारा तरीका मनोवैज्ञानिक ढंग का ही है । आवश्यक नियुक्ति में केवल, शुष्क ज्ञान और ज्ञानरहित क्रिया - कर्म कैसे निरर्थक है, यह बताने के लिये मर्मस्पर्शी दृष्टान्त का आलेखन किया है ।
जहा खरो वंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु वंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सोग्गईण ।। हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्डो, धायमाणो अ अंधओ ॥ संजोगसिद्धिइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगू वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ।
- जैसे चंदन का भार ढोनेवाला गधा भार का ही भागी होता है, चन्दन का नहीं, उसी प्रकार चारित्र से विहीन ज्ञानी केवल ज्ञान का ही भागी होता है, सद्गति का नहीं । क्रियारहित ज्ञान और अज्ञानी की क्रिया नष्ट हुई समझनी चाहिए। (जंगल में आग लग जाने पर) चुपचाप खड़ा देखता हुआ पंगु और भागता हुआ अंधा. दोनों ही आग में जल मरते हैं । दोनों के संयोग से सिद्धि होती है : एक पहिये .से रथ नहीं चल सकता । अंधा ओर लंगड़ा दोनों एकत्रित होकर नगर में प्रविष्ट हुए । अन्य आगमों में भी ऐसी बहुत कथायें मिलती हैं । यहाँ गधे की जड़ता, पंगुकी निराधार अवस्था और भागता हुआ निसहाय अंधा-इन तीनों की मनःस्थिति का यथातथ चित्रण हुआ है।
. आगमों के अतिरिक्त भी अर्धमागधी, महाराष्ट्री, शौरसेनी, पैशाची आदि प्राकृत भाषाओं में कथा और काव्यसाहित्यका विपुल निर्माण हुआ है। इन साहित्य में मानवजीवन ही प्रतिबिंबित हुआ है। अतः मानवमन के संकुल रहस्यों का उद्घाटन उसमें सहजरुप से ही हुआ है । मानवमन की सूक्ष्माति सूक्ष्म गति-विधि, वृत्तिविचार और उनसे प्रेरित शारीरिक क्रियायें - उन सबका सचोट, प्रभावक और मानसशास्त्रीय आलेखन हमें जगह जगह पर मिलता है। उद्योतनसूरिकृत कुलवयमाला की सफल कथा में इस तरह के दृष्टान्त बारबार मिलते हैं। कथा के आरंभ में ही