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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम
सिद्धांत स्वतंत्रता के सिद्धान्त के साथ जुड़ा हुआ है । जैन एवं बौद्ध दर्शन एक
और अहिंसा-सिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पूर्ण समर्थन करते हैं, वहीं दूसरे ओर समता के आधार पर वर्गभेद, जातिभेद एवं उँच-नीच की भावना को समाप्त करते हैं।
. शांतिमय समाज की स्थापना के लिये व्यक्ति का नीतिधर्म से प्रेरित अहिंसापूर्ण आचार ही महत्त्व का परीबळ है। अहिंसा :
आहिंसा का शब्दार्थ है हिंसा का निषेध । यह उसका निषेधरूप है। उसके विधेयात्मक रूप में प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, राग-द्वेष-मोह आदि कषायों के अभाव को हम बता सकते हैं । वस्तुतः अहिंसा का मूल हेतु जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना एवं अद्वैतभावना है । समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से. आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हींसे अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं जीवन के प्रति सम्मान के भाव से विकसित होती है। अपरिग्रह ः
जैनदर्शन में उपदेशित अपरिग्रह, परिग्रहपरिमाणवत अथवा इच्छपरिमाण व्रत भी महत्त्व का है।
गृहस्थ साधक को अपने रोजबरोज के जीवन में उपयोगी चीजों के परिग्रह की मर्यादा निश्चित करनी होती है - जैसे साधना की दृष्टि से इच्छ का परिसीमन अति आवश्यक है।
जैन विचारणा में गृहस्थ साधक को नौ प्रकार के परिग्रह की मर्यादा निश्चित करनी होती है - १. क्षेत्र - कृषि भूमि अथवा अन्य खुला हुआ भूमि भाग, २. वास्तु - मकान आदि अचल सम्पत्ति, ३. हिरण्य - चांदी अथवा चांदी की मुद्राएँ, ४. स्वर्ण - स्वर्ण अथवा स्वर्ण मुद्राएँ, ५. द्विपद - दास दासी-नौकर, कर्मचारी इत्यादि, ६. चतुष्पद - पशुधन, ७. धन - चल सम्पत्ति, ८. धान्य -अनाजादि, ९. कुप्य - घर गृहस्थी का अन्य सामान ।
साधक वैयक्तिक रूप से भी अपने जीवन की दैनिक क्रियाओं जैसे आहारविहार अथवा भोगोपभोग का परिमाण भी निश्चित करता है। जैन परम्परा इस संदर्भ में अत्याधिक सतर्क है । व्रती गृहस्थ स्नान के लिए कितने जलका उपयोग करेगा किस वस्त्रसे अंग पोंछेगा यह भी निश्चित करना होता है । दैनिक जीवन के व्यवहार