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धर्म और विज्ञान का समन्वय
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समत्वयोग का लक्ष्य है । आधुनिक शरीरशास्त्र और आरोग्यविषयक संशोधनोंने भी शरीर और मन की तंदुरस्ती के लिये तनावमुक्ति एवं समता का महत्त्व स्वीकार किया है । ब्लडप्रेशर, मधुप्रमेह, पेट के दर्द, मानसिक बिमारिया आदि के मूल में यह तनाव ही है। हमारे धर्मप्रणेताओं शायद इन शरीरविज्ञान - मनोविज्ञान आदि को भी जानते थे। इस लिये धर्म और विज्ञान अन्योन्य पूरक बनकर यहाँ प्रगट हुए । हमारे क्रान्तदृष्टा ऋषिने कहा है :
'मनः एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः ।' मन ही सबमें प्रमुख है। हम बंध और मोक्ष की बात बाद में सोचें, तब भी शरीर-मन की तंदुरस्ती और शांति के लिये मनका नियंत्रण अनिवार्य है। और इस दृष्टि से ही हमारी धार्मिक आचारपरंपरा का निदर्शन हुआ है । धर्म और शरीरविज्ञान तथा मनोविज्ञान : ... आचार्य महाप्रज्ञजीने बताया है कि शरीर का रोग एक बड़ी समस्या है तो मानसिक रोग तो इससे भी बड़ी समस्या है । क्रोध, अहंकार, माया, लोभ - सारी भावनात्मक बीमारीया हैं । हम इन सबसे इतने परिचित हो गए हैं कि इन्हें बीमारी ही नहीं समझने । हकीकत में क्रोध आदि कषाय एक बीमारी ही नहीं बीमारीयों को पैदा करनेवाली बीमारी है। आज विज्ञान भी मनोकायिक बीमारी को स्वीकार करता है। रोग केवल शरीरं से नहीं, मन से भी पैदा होता है । मानसिक बीमारियों से भावनात्मक बीमारियाँ ज्यादा अहितकारक है । आज तक हम लोग यही समझते थे कि हिंसा, चोरी, मिथ्याचार, क्रोध, अहंकार प्रेरित वर्तन आदि से कर्म का बंधन होता है और आत्मा का अधःपतन होता है। लेकिन आज वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह माना जाता है किं कषायों के कारण स्वास्थ्य को बड़ा नुकशान होता है । मन में धृणा का भाव जागता है और आंतों में अले पड जाते हैं। क्रोध इर्ष्या, द्वेषभाव, ब्लडप्रेशर, डायाबीटीस और हृदय के अनेक रोगों के निमित्त. बन जाते हैं। इसीसें मानसिक तनाव भी बहुत बढ़ जाता है। आज विज्ञानने भी स्वीकार किया है कि आदमी में अनेक प्रकार के तनाव रहते हैं और शारीरिक रोगों के निमित्त बनते हैं। इस लिये. तनाव का विसर्जन हमारे लिये बहुत महत्त्व का है। कषायों के क्षय से ही यह हो सकता है । .. आज मस्तिष्क विद्या का बहुत विकास हुआ है । आज तरंगों के द्वारा मस्तिष्क की रचना का अभ्यास होता है । इसके द्वारा महत्त्वपूर्ण बातें प्रकाश में आ रही है । मुख्यतः चार प्रकार की तरंगे मानी जाती हैं - अल्फा, बीटा, डेटा,