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विशुद्धिमग्ग : बौद्ध धर्म का विश्वकोश
अन्तो जटा बहि जटा जटाय जटिता पजा । तं तं गोतम पुच्छामि को इमं विजटये जटं ? 'ति ॥
एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे, उस समय किसी देवता ने आकार भगवान् से पूछा - अन्दर भी जञ्जाल (उलझन) है, बाहर भी जञ्जाल है, यह सारा संसार जञ्जाल से कैसे छुटकारा पा सकता है ? अर्थात् यह समग्र संसार भवबन्धन में जकड़ा हुआ है, कौन किस उपाय से इससे मुक्त हो सकता है ? प्रत्युत्तर के रूप में दूसरी गाथा है
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सीले पतिट्ठाय नरो सपञ्ञ चित्तं पञ्चं च भावयं । आतापी निपको भिक्खु सो इमं विजटये जटं ति ॥
इसके उत्तर में भगवान कहते है- शील (सदाचार) में प्रतिष्ठित हो कर जो प्रज्ञावान् पुरुष जब समाधि और प्रज्ञा की भावना करता है, तब वह उद्योगी तथा ज्ञानवान् पुरुष भिक्षु (त्यागी) हो कर इस जञ्जाल ( भवबन्धन) को सुलझा लेता है ।
आचार्य ने भगवान् के इस उत्तर के सहारे समग्र बौद्ध सिद्धान्त और दर्शन को एक निश्चित उद्देश्य में ग्रथित कर विसुद्धिमग्ग की अवतारणा की है। वह निश्चित उद्देश्य है - साधना मार्ग के उत्तरोत्तर विकास का स्पष्टतम निर्देश । दूसरे शब्दों में हम यों भी कह सकते हैं कि विसुद्धिमग्ग बौद्धयोग को एक अत्यन्त क्रमबद्ध पद्धति से उपस्थित करने का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयास है ।
विशुद्धिमग्ग की विशेषता :
यह ग्रन्थ प्रधानतः योगशास्त्र का विशद व्याख्यान है, अतः इसमें योगाभ्यास .में. प्रवृत्त होनेवाले जिज्ञासु के लिये, प्रारम्भ से लेकर सिद्धि तक की समग्र विधियाँ तो क्रमबद्ध पद्धति से वर्णित की ही गयी हैं, साथ ही प्रसङ्ग - प्रसङ्ग पर बौद्धदर्शन की' अन्य विवेचनात्मक गवेषणाएँ तथा ब्राह्मणदर्शनों की विशेषतः व्याकरण, न्याय, सांख्य, योग, आयुर्वेद तथा मीमांसा शास्त्रों की ग्रन्थियाँ भी अतीव सरल भाषा में समझा दी गयी हैं । अतः यदि विद्वान् लोग इस ग्रन्थ को 'बौद्धधर्म का विश्वकोष ' कहते हैं तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है । यह कहकर उन विद्वानों ने इस ग्रन्थ की तथा इसके रचयिता आचार्य बुद्धघोष की वास्तविक प्रशंसा की है ।
आचार्य बुद्धघोष भी अपने इस विसुद्धिमग्ग को अपनी सम्पूर्ण रचनाओं का केन्द्रबिन्दु मानते थे, अतः वे अपनी अट्ठकथाओं के मनन- चिन्तन करने वाले पाठक से यह उपेक्षा रखते थे कि वह सर्वप्रथम 'विसुद्धिमग्ग' पढ़े। इसलिये उन्होंने