________________
बौद्ध तत्त्वमीमांसा : हीनयान संप्रदाय के अनुलक्ष्य में होने से भविष्य में उस साधक को कोई भी क्लेश नहीं होगा । क्लेशों का नाश हो जायेगा । 'अप्रतिसंख्यानिरोध' का अभिप्राय है कि क्लेशों का नाश होने पर पुनः दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जायेगी और भवचक्र से वह साधक मुक्त हो जायेगा।
वैभाषिक-मत में जिस जगत् का इन्द्रियों के द्वारा हमें अनुभव होता है वह उसकी 'बाह्यसत्ता' है । इसका हमें प्रत्यक्ष और कभी-कभी अनुमान से भी ज्ञान प्रास होता है। इस जगत् की सत्ता चित्तनिरपेक्ष है; साथ ही साथ हमारे अन्दर चित्त तथा उसकी सन्तति की भी स्वतन्त्र 'सत्ता' है । अर्थात् जगत् एवं चित्तसन्तति दोनों की सत्ता पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र रूप से वैभाषिक-मत में मानी जाती है। यह सत्ता प्रतिक्षण में बदलती रहती है, अर्थात् ये लोग 'क्षणभंगवाद' का स्वीकार करते हैं । वस्तुतः 'क्षणभंगवाद' को तो सभी बोद्ध मानते हैं।
सौत्रान्तिको का कथन है कि 'बाह्य-सत्ता' तो है अवश्य, किन्तु इसका ज्ञान हमें ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा, अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा, नहीं होता । 'चित्त' में स्वभावतः कोई आकार बौद्ध नहीं मानते । यह शुद्ध और निराकार है । किन्तु यह 'चित्त' में आकारों की उत्पत्ति तथा नाश होता ही रहता है। ये 'आकार' चित्त के
अपने धर्म तो हैं नहीं। ये हैं बाह्य जगत् की वस्तुओं के 'आकार' । इस प्रकार .चित्त के आकारों के द्वारा 'बाह्य-सत्ता' का ज्ञान हमें अनुमान के द्वारा प्राप्त होता है, यह 'सौत्रान्तिकों' का मन्तव्य है । वैभाषिको की तरह क्षणभंगवाद' को ये भी मानते हैं। - सौत्रान्तिक-मत में सत्ता की स्थिति बाह्य से अन्तर्मुखी हो गयी। .. योगाचार के मत में 'बाह्य-सत्ता' का सर्वथा निराकरण किया गया है। इनके मत में 'चित्त' में अनन्त विज्ञानों का उदय होता रहता है। ये 'विज्ञान' परस्पर भिन्न होते हुए भी संक्रमण के कारण एक दूसरे से सम्बद्ध हैं, परन्तु फिर भी सभी स्वतन्त्र हैं । ये 'विज्ञान' स्वप्रकाश हैं । इनमें अविद्या के कारण ज्ञाता, ज्ञान तथा ज्ञेय के भेद की कल्पना हम कर लेते हैं । इस मत में बाह्य जगत् की सत्ता नहीं है । ये लोग केवल चित्त की सन्तति की सत्ता को मानते हैं और सभी वस्तुओं को ज्ञान के रूप कहते हैं । इन के मत में यह विज्ञान या 'चित्त-सन्तति' क्षणभंगिनी
इस प्रकार क्रमशः बाह्य जगत् की स्वतन्त्र-सत्ता, पश्चात् अनुमेय-सत्ता, तत्पश्चात् बाह्य जगत् का निराकरण और सभी वस्तु को विज्ञान-स्वरूप मानना, इस प्रकार क्रमिक अन्तर्जगत् की तरफ तत्त्व के यथार्थ अन्वेषण में बौद्ध लोग लगे थे।