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बौद्ध तत्त्वमीमांसा : हनयान संप्रदाय के अनुलक्ष्य में
है। अत: इन तीनों नामों के निर्वचन में भेद है, लेकिन एक ही अर्थ प्रज्ञात करते हैं। इन्द्रिय तथा इन्द्रिय के विषय, इन दोनों के आघात तथा प्रतिघात से 'चित्त' उत्पन्न होता है । जिस समय इस आघात तथा प्रतिघात का नाश होता है उसी समय 'चित्त' का भी नाश होता है । वैभाषिक-मत में 'चित्त' ही एक मुख्य तत्त्व है । इसी में सभी संस्कार रहते हैं। यही 'चित्त' इस लोक तथा परलोक में आता-जाता रहता है । यह हेतु-प्रत्यय से उत्पन्न होता है। अतएव इसकी सत्ता स्वतन्त्र नहीं है । यह प्रतिक्षण बदलता रहता है । वस्तुतः यह
एक है, किन्तु उपाधियों के कारण इसके भी अनेक प्रभेद हैं । (३) चैतसिक - "चित्त' से घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाले मानसिक व्यापार को चैतसिक - या 'चित्तसंप्रयुकधर्म' कहते हैं । इसके छियालीस प्रभेद हैं। (४) चित्तविप्रयुक्त - जो धर्म न तो रूप-धर्मों में और न चित्त के धर्मों में परिगणित
हो, उन्हें 'चित्तविप्रयुक्त धर्म' कहते हैं । इनकी संख्या चौदह है । (५) निर्वाण - अभिधर्मकोश में इसे 'सोपधिशेषनिर्वाणधातु' की प्राप्ति कहा गया
है। यह ज्ञान का आधार है । यह एक है । सभी भेद इसमें विलीन हो
जाते हैं । अतएव कहा गया है - 'निर्वाणं शान्तम् ।' क्लेशशून्या .:. चित्तसन्ततिर्मुक्तिरिति बैभाषिकाः ।।
___ 'निर्वाण' जीवन की एक वह स्थिति है जिसे अर्हत् लोग सत्य मार्ग के अनुसरण से प्राप्त करते हैं । यह स्वतन्त्र, सत् और नित्य है। .... यह आकाश की तरह अनन्त, अपरिमित तथा अनिर्वचनीय है। यह भावरूप है। 'मग्ग' के अनुसरण करने से सास्त्रवधर्मों का नाश होने पर इसकी प्राप्ति होती है। स्थविरवादियों ने इसे एक प्रकार से असंस्कृत धर्म में ही अन्तर्भूत कर लिया
सौत्रान्तिक संप्रदाय : _ पूर्व में सौत्रान्तिक लोग वैभाषिकों के साथ-साथ स्थविरवाद सम्प्रदाय के अन्तर्गत थे, किन्तु दृष्टिकोण के भेद के कारण पश्चात् ये लोग एक दूसरे से पृथक् हो गये । कहा जाता है कि सौत्रान्तिकों को विश्वास हो गया कि बुद्ध के साक्षात् उपदेश ‘सुत्तपिटक' में है । अतएव ये लोग सुत्तपिटक के अनुगामी हो गये और तदनुकूल अपना नाम भी रख लिया। 'अभिधम्मपिटक' तथा 'विभाषा' में इन लोगों को श्रद्धा नहीं रही ।