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________________ बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम योगाचार के मत में 'बाह्य - सत्ता' का सर्वथा निराकरण किया गया है । इनके मत में 'चित्त' में अनन्त विज्ञानों का उदय होता रहता है। ये 'विज्ञान' परस्पर भिन्न होते हुए भी वासन - संक्रमण के कारण एक दूसरे से सम्बद्ध हैं, परन्तु फिर भी सभी स्वतन्त्र है। ये 'विज्ञान' स्वप्रकाश है। इनमें अविद्या के कारण ज्ञाताज्ञान तथा ज्ञेय के भेद की कल्पना हम कर लेते हैं। इस मत में बाह्य जगत की सत्ता नहीं है । ये लोग केवल चित्त की सन्तति की सत्ता को मानते हैं और सभी वस्तुओं को ज्ञान के रूप कहते हैं। इन के मत में यह 'विज्ञान' या 'चित्त - सन्तति' क्षणभंगिनी है । २६ इस प्रकार क्रमश: बाह्य जगत् की 'स्वतन्त्र - सत्तां', पश्चात् 'अनुमेय-सत्ता', तत्पश्चात् बाह्य जगत् का निराकरण और सभी वस्तु को विज्ञान - स्वरूप मानना, इस प्रकार क्रमिक अन्तर्जगत् की तरफ तत्त्व के यथार्थ अन्वेषण में बौद्ध लोग लगे थे। अन्त में 'विज्ञान' का भी निराकरण शून्यवाद - मत में किया गया । इस प्रकार बाह्य और अन्त:सत्ता दोनों का 'शून्य मैं विलयन कर दिया गया । यह 'शून्य' एक प्रकार से अनिर्वचनीय है । यह सत् और असत् दोनों से विलक्षण है तथा सत् और असत् दोनों स्वरूप शून्य के गर्भ में निर्वाण को प्राप्त किये हुए हैं। यह अभावात्मक नहीं है एवं अलक्षण है । इस प्रकार 'प्रत्यक्ष बाह्य सत्ता' से 'अनुमेय बाह्य सत्ता', उसे 'अन्तःविज्ञानमात्र सत्ता' और पुनः 'शून्य' में निर्वाण की सत्ता को देखकर यह कहा जा सकता है कि बौद्ध-दर्शन में निःस्वभाव, अनिर्वचनीय, अलक्षण, आदि शब्दों के द्वारा निरूपित किया गया 'शून्य' ही 'परम तत्त्व' है। यही महानिर्वाणपद है । यहीं पहुँचकर साधक 'परम पद' की प्राप्ति करते हैं । इसके परे कोई गन्तव्य पद नहीं है । इस 'शून्य' में विलयन होने के उद्देश्य से आरम्भ में ही क्षणभंगवाद को बौद्धो ने स्वीकार किया । इस तरह बौद्ध संप्रदायों ने जगत् के स्वरूप के बारे में तार्किक दृष्टि से बुद्धने अपने आप कार्य-कारण के संदर्भ में तत्त्व की दृष्टि से भी प्रतिपादित किया है। साररहस्य रूप है । गहन चिंतन किया है, लेकिन गौतम प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त को ही यह सिद्धान्त ही बौद्ध तत्त्वदर्शन के - बौद्धदर्शन - एम. के. भट्ट भारतीय दर्शन - उमेश मिश्र संदर्भ ग्रंथ १. भारतीय दर्शन - ले. न. कि. देवराज २. बौद्ध धर्मदर्शन - आचार्य नरेन्द्रदेव ३. ४.
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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