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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम होता है । प्रतीत्यसमुत्पाद की शृंखलाओं में ऐसे बारह निदान उन्होंने बतायें हैं - जैसे कि अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति, जरा-मरण, शोक, परिवेदना..... । अविद्या और तृष्णा ही सारी कर्मपरंपरा और जन्मपरंपरा के आदि में है।
__ सृष्टि के सर्जन और परंपरा का नियामक परिबल यह कार्यकारण का सिद्धांत होने का निर्देश करके गौतम बुद्धने इस संदर्भ में कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। कर्मसिद्धान्त :
संसारमीमांसा में कर्म का प्राधान्य सर्वसंमतरूप से स्वीकृत है। मानवजीवन में प्रवर्तित अनेक प्रकार की विषमतायें और विसंमवादिताओंके मूल में कर्म का ही प्राधान्य होने की बात गौतम बुद्धने बार बार कही है । कर्म ही सत्त्वों को हीन और प्रणीत बनाते हैं -
'कम्मं सत्ते विभाजति यदिदं हीनपणीततायां'ति' ।
मनुष्य जैसा बोता है वैसा ही फल प्राप्त करता है - यह कर्मसिद्धान्त सबके लिये समान है । संसाररूपी अगाध समुद्र में परिभ्रमण करानेवाला प्रतीत्यसमुत्पाद भी कर्मचक्र ही है । कर्म से विपाक उत्पन्न होता है, इसी कारण से फिर कर्म का उद्भव होता है । कर्म और कर्मफल के परस्परिक संबंध की वजह से भवचक्र घूमता रहता है।
प्रत्येक प्राप्त परिस्थिति और पुनर्जन्म का कारण कर्म है । विश्व में प्रवर्तित सानुकूल या विपरित स्थिति भी ईश्वरकृत नहीं है, कर्मकृत ही है।
हमलोग जो कुछ भी प्रवृत्ति करते हैं, वे सब कर्म है । प्रवृत्ति के परिणाम से चित्त पर संस्कार अथवा वासना के रूप में उसका प्रभाव पड़ता है। यह वासनारूप कर्म पुनर्जन्म के कारणरूप बनता है। इस लिये बुद्ध कहते हैं कि यह शरीर न तो आपका है, न अन्यों का, केवल पहले किये गये कर्म का परिणाम ही है। हमारा सारा अस्तित्व - हमारे अतीतकालीन कर्मों का ही प्रतिरूप है । कर्म ही उसकी विरासत है, कर्म ही प्रभव है, कर्म ही उसका बन्धु और कर्म ही उसका सहारा है। कर्म शब्द का सामान्य अर्थ :
'कर्म' शब्द के अनेक अर्थ हैं । साधारणतः 'कर्म' शब्द का अर्थ 'क्रिया' है, प्रत्येक प्रकार की हलचल, चाहे वह मानसिक हो अथवा शारीरिक,क्रिया कही जाती है।
मनुष्य जो कुछ भी करता है, जो भी कुछ नहीं करने का मानसिक संकल्प