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प्राकृत भाषा साहित्य में निरुपित शांतिमय सहजीवन की संकल्पना
. स्वस्ति अर्थात् कल्याण सभी की चाहना है । संहिताओं में यत्र-तत्र-सर्वत्र कल्याण विषयक ऋचायें बिखरी पड़ी हैं। वैदिक मानव की प्रतिज्ञा थी की 'यह मेरा मन कल्याणकारी विचारोंवाला हो।' चारों ओर से हमें शुभ विचार प्राप्त हो।
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वः । (ऋग्वेद - १-८-८६)
वैदिक आर्य के मनमें अपने, दूसरों तथा समस्त समाज के प्रति कल्याण की व्यापक उदार भावना विद्यमान थी । वह देवों से अपने कल्याणकारी कामना तो करता ही था, साथ में ऐसे मन, वाणी और बुद्धि की याचना करता था कि जिससे अन्य का कल्याण भी कर सके ।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उसका लक्ष्य केवल सुख शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करने का ही था । संहिताओ में 'शम्' शब्द सुख अथवा कल्याण के लिये ही प्रयुक्त हुआ है । इसी प्रकार स्वस्ति शब्द भी सुख एवं कल्याण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । प्राकृतिक शक्तियों से भी ऋषि सुखकर होने की प्रार्थना करता है । वेदो में शांतिमंत्र बड़ा सुप्रसिद्ध है । जिसमें सब ओर से शांति की कामना की गई है।- . .
ॐ स्वस्ति नो इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति न्तार्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु... ॥ .... 'द्यौ हमारे लिए शांतिकर हो', 'अंतरिक्ष शांतिकर हो', 'पृथ्वी शांतिकर हो'..: वनस्पतियाँ शांतिकर हो... सभी कुछ शांतिकर हो, सर्वत्र शांति ही शांति हो। वह शांति मुझे भी प्राप्त हो ।' .. यह शांति की प्रार्थना व्यक्ति और समष्टि सबके लिये थी।
- सर्वेत्र सुखिनः सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् । 'प्राकृत भाषा साहित्य में महद् रूप से जैन दर्शन एवं तत्त्वचिंतन का निरूपण है। आगम जैसे चिंतनात्मक ग्रंथों के अतिरिक्त महाकाव्य, आख्यान, कथा आदि साहित्यप्रकारों में भी प्रधानरूप से धर्मसंस्थापना और उसका प्रचार-प्रसार ही उद्दिष्ट है। प्रश्न व्याकरणसूत्र नामक जैन आगम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 'तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए हैं । पाँचों