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________________ देवतामूर्ति-प्रकरणम् विशिष्ट विवेचन 1. पद्य - 1. मध्यमे भवेत् । त्रिःसप्तांशे कृते द्वारे ब्राह्मेऽशे कृत्वा षडंशकं तच्च वामे द्वयंशं व्यपोह्य च ॥ तदंशमग्रं नीत्वा तु प्रागुदग्गतसूत्रकम् । तद्ब्रह्मसूत्रमित्युक्तं तत्सूत्रं शिवमध्यमम् । मयमतम् अ. ३३ श्लोक. ३८-३९-४० । मत्स्यपुराण में कहा है कि " द्वारं विभज्य पूर्वं तु एकविंशतिभागकम् । ततो मध्यगतं ज्ञात्वा ब्रह्मसूत्रं प्रकल्पयेत् ॥ तस्यार्द्धं तु त्रिधा कृत्वा भागं चोत्तरतस्त्यजेत् । एवं दक्षिणत्नस्त्यक्तंवा ब्रह्मंस्थानं प्रकल्पयेत् ॥” अ. २६३ श्लोक ५-६-७ . प्रथम, द्वार का इकवीस भाग करना, इनमें 'मध्य भाग में गये हुए सूत्र को ब्रह्मसूत्र की कल्पना करना । इस ब्रह्मसूत्र के आधे का तीन भाग करके उत्तर दक्षिण का भाग छोड़ देना, बाकी मध्य भाग को ब्रह्मस्थान की कल्पना करे । मानसार में अन्य प्रकार से कहा है कि"मध्ये ब्रह्मपदे सप्त-सप्तभागं विभाजिते । 73 ब्रह्मांशे मध्यमे ब्रह्मसूत्रं तत्परिकल्पयेत् ॥ तद्वामे विष्णुसूत्रं स्यात् तद्द्बाह्ये परिकल्पयेत् । तत्सूत्रद्वयोर्मध्ये शिवसूत्रं प्रकल्पयेत् ॥” अ. ५२ श्लोक ७१-७२. मध्य ब्रह्मस्थान का गुनपचास भाग करना । उसमें मध्य का जो ब्रह्म भाग है, यह ब्रह्मसूत्र कल्पना करे। इस ब्रह्मसूत्र के बाँयी ओर विष्णुसूत्र की कल्पना करना । इस विष्णुसूत्र और ब्रह्मसूत्र के मध्य में शिवसूत्र की कल्पना करना । 2. पद्य - 4. समरांगणसूत्रधार में भी कहा है कि “ स्थापयेत् (पुरुषत्रया ? ) शि(वा ? वं) मध्ये निवेशयेत् ।
SR No.002234
Book TitleDevta Murti Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Bhagvandas Jain, Rima Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1999
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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