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________________ 198 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान और उसके लिए उनके मूल ग्रन्थों से ही बहुत से अवतरण/उद्धरण दिये हैं। ___अकलंक के आप्तमीमांसाभाष्य एवं सविवृति लघीयस्त्रय में कुछ ऐसे वाक्य या. वाक्यांश पाये जाते हैं, जो दूसरे-दूसरे ग्रंथों से लिए गये हैं। उनमें कुछ अंश तो ऐसे हैं, जो उद्धरण या अवतरण के रूप में लिये गये हैं, किन्तु कुछ अंश भाष्य या कारिका अथवा विवृति के ही अंग बन गये हैं अतएव भाष्य या विवृतिकार द्वारा ही रचित लगते हैं। अकलंककृत आप्तमीमांसाभाष्य एवं विवृति सहित लघीयस्त्रय में दूसरे ग्रन्थों के जो पद्य या वाक्य उद्धृत हैं, उनके निर्देश स्थल को खोजने की यथासम्भव कोशिश की गयी है। बहुत से उद्धरणों का निर्देशस्थल अभी मिल नहीं सका है, उन्हें खोजने की कोशिश जारी है। यह भी प्रयास है कि इस प्रकार के तथा अन्य उद्धृत पद या वाक्य जिन-जिन ग्रन्थों में उद्धृत हैं, उनको भी संकलित कर लिया जाये। इससे ग्रन्थकारों का समय तय करने में बहुत सहायता मिल सकती है और लुप्त कड़ियों को एकत्र किया जा सकता है और उन्हें संजोकर प्रकाश में लाया जा सकता है।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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