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________________ भट्टाकलंकदेव का उत्तरवर्ती आचार्यों पर प्रभाव 183 चन्द्रसेन : ___ • आ० चन्द्रसेन (ई० १२वीं सदी) ने उत्पादादि सिद्धि प्रकरण में सिद्धिविनिश्चय का 'न पश्यामः' श्लोक उद्धृत किया है। रत्नप्रभ: आचार्य रत्नप्रभ (ई० १२वीं) वादिदेवसूरि के ही शिष्य थे। इन्होंने अपनी रत्नकरावतारिका में अकलंकदेव के प्रति 'प्रकटितीर्थान्तरीयकलंकोऽकलंक' लिखकर बहुमान प्रकट किया है। इन्होंने उसमें लघीयस्त्रय के श्लोक भी यथास्थान उद्धृत किये आशाधर : . __प्रज्ञापुंज पं० आशाधरजी (ई० ११८८-१२५०) ने भी अकलंक वाङ्मय का पारायण किया था। इन्होंने अनगारधर्मामृतटीका और इष्टोपदेशटीका में लघीयस्त्रय का चौथा और बहत्तरवाँ श्लोक उद्धृत किया है। इनका स्याद्वादविद्या का निर्मल प्रासाद 'प्रमेयरत्नाकर' ग्रन्थ अप्राप्य है, अन्यथा इनके अकलंक वाङ्मय के अवगाहन का और भी पता लगता। अभयचन्द्र: ... अभयचन्द्रसूरि (ई० १२वीं सदी) ने अकलंकदेव के लघीयस्त्रय पर छोटी सी तात्पर्यवृत्ति रची है और भट्टाकलंक शशांक की कौमुदी से उसे समुज्ज्वल बनाया है। देवेन्द्रसूरि : . कर्मठ ग्रन्थकार आचार्य देवेन्द्रसूरि ई० की १३वीं सदी के विद्वान् हैं। इन्होंने कर्मग्रन्थ की टीका में लघीयस्त्रय का ‘मलविद्धमणि' श्लोक उद्धृत किया है। धर्मभूषण - .. न्यायदीपिकाकार धर्मभूषणयति (ई० १४वीं) ने न्यायदीपिका में लघीयस्त्रय और न्यायविनिश्चय के उद्धरण दिये हैं तथा अकलंकन्याय का दीपक किया है। - विमलदास : .. विमलदासगणि ने नव्य शैली में सप्तभंगतरंगिणी ग्रन्थ लिखा है। इन्होंने 'तदुदृक्तं 'भट्टाकलंकदेवैः' के साथ यह श्लोक उद्धृत किया है। “प्रमेयत्वादिभिः धर्मैरचिदात्मा चिदात्मकः। ज्ञानदर्शनं तस्माच्चेतनाचेतनात्मकः ।। ___ यह श्लोक स्वरूप सम्बोधन में मूल (श्लो० ३) रूप से विद्यमान है। स्वरूप सम्बोधन ग्रन्थ रचना आदि की दृष्टि से अकलंक का तो नहीं मालूम होता। यह
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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