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विज्ञानवाद पर आचार्य अकलंक और उनके टीकाकार
है जब यह सिद्ध हो जाये कि ज्ञान अपने स्वरूप में ही निष्ठ होता है और अर्थ का आकार धारण करता है पर यह सिद्ध नहीं होता। यदि सभी ज्ञान अपने आकार मात्र को ग्रहण करते हैं तो उनमें भ्रान्त-अभ्रान्त का भेद तथा बाध्य-बाधकपना नहीं बनता।' विज्ञानवादियों की आत्मख्याति और ब्रह्माद्वैतवादियों की अनिर्वचनीयख्याति में कोई विशेष भेद नहीं है। दोनों बाह्य वस्तु को न सत् कहना चाहते हैं और न असत्। दोनों ही आन्तरिक तत्त्व का ही बाह्य रूप से प्रतिभास मानते हैं। एक उसे विज्ञान कहता है तो दूसरा उसे अविद्या। एक उसकी प्रतीति विपरीत वासना के कारण ग्राह्य-ग्राहक रूप से मानता है तो दूसरा यह मानता है कि वस्तु सत् नहीं है, किन्तु अविद्या निष्पन्न अविद्योपादानक रजत की प्रतीति होती है। विज्ञानवाद में मिथ्याज्ञान का कारण इन्द्रियों की विकृति है परन्तु जैनदर्शन आत्मवादी होने के कारण प्रमाता को ही भ्रम का निमित्त मानता है। सभी दोष मिलकर. मोहावस्था के कारण प्रभाता को ही विकृत कर देते हैं
और फिर उसे भ्रान्तज्ञान पैदा होता है पर वह भी किसी सीमा तक प्रमाण है। इन्द्रियदोषजन्य चन्द्रद्वय दर्शन में संख्या के विषय में विसंवाद होने के कारण संख्या ज्ञान अप्रमाण है अवश्य, पर चन्द्र के स्वरूपांश में तत्त्वज्ञान (सम्यग्ज्ञान) अविसंवाद ज्ञान होने से उस अंश में वह ज्ञान प्रमाण ही है। अतएव कोई भी भ्रम एकान्ततः भ्रम नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः स्वपर-प्रकाशवादी जैन-बौद्ध दृष्टि से सभी भ्रमज्ञान स्वपरसंवेदी है। अतः वे स्वांश में प्रमाण और परांश में अप्रमाण हैं।
दार्शनिक क्षेत्र में कार्यकारणाभाव के संदर्भ में शक्ति की कल्पना की गई है। वह वस्तु का एक सामर्थ्य है। जैसे- घट के निर्माण में मृत्तिका एक सामर्थ्य है, बीज है, शक्ति है। अद्वैतवादियों में कार्यकारणभाव व्यावहारिक सत्य है, पारमार्थिकसत्य नहीं। बाह्यार्थवादियों के मत में कार्यकारणभाव पारमार्थिक सत्य है। माध्यमिक बौद्धों ने भावों में उत्पादादिधर्म शून्य होने के कारण कार्यकारण भाव को कोई स्थान नहीं दिया। अनादिकाल से चली आ रही अविद्या वासना के कारण सभी व्यवहार वहां निपट जाते हैं। विज्ञानवाद में इसी वासना को शक्ति विशिष्ट आलयविज्ञान नाम दिया है, जो
१. न्यायकुमुदचंद्र पृ० ६१, प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ४६-५० २. ब्रह्मसूत्र, १.१.१; भामती, १.१.१.; प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ०- ५१ ३. न्यायविनिश्चय टीका, पृ० १७ ४. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ० २५० ५. अष्टशती का० १०१, अष्टसहनी, पृ० २७६; तत्वार्थश्लोक० पृ० १७०; प्रमाणवार्तिकालंकार, पृ० ४१ ६. न स्वतो नापि पत: न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः
उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः क्वचन केचन् ।। माध्यमिक का० १