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आचार्य पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि और आचार्य
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सातवीं शती के महान् आचार्य अकलंकदेव ने आ० पूज्यवाद की सर्वार्थसिद्धि टीका को समाहित करते हुए इस ग्रन्थ पर “तत्त्वार्थवार्तिक" जिसे राजवार्तिक नाम से भी जाना जाता है, एक ऐसे वार्तिक ग्रन्थ की रचना की जो स्वयं में एक स्वतंत्र ग्रन्थ प्रतीत होता है। नवमीं शती के दिग्गज आचार्य विद्यानंद ने “तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक" नामक विशालकाय टीका ग्रन्थ लिखकर जैनधर्म- दर्शन के तत्त्वों का दार्शनिक शैली में मात्र विवेचन ही नहीं किया, अपितु पूर्वपक्ष के रूप में अमान्य दार्शनिक मान्यताओं का खण्डन प्रस्तुत करने हुए जैनदर्शन के पक्ष का मण्डन करके उसे तर्कशैली में प्रस्तुत किया है। . इनके अतिरिक्त आ० अभयनंदिकृत तत्त्वार्थवृत्ति, आ० शिवकोटिकृत रत्नमाला टीका, आ० भास्करनन्दिकृत सुखबोध नामक टीका, बालचन्द कृत कन्नड टीका, विवुधसेनकृत तत्त्वार्थ टीका, लक्ष्मीदेवकृत तत्त्वार्थ टीका, आचार्य श्रुतसागर सूरीकृत तत्त्वार्थवृत्ति, द्वितीय श्रुतसागरविरचित तत्त्वार्थ-सुबोधिनी के अतिरिक्त श्वेताम्बर परम्परा में भी आचार्य सिद्धसेन एवं आचार्य हरिभद्रप्रणीत वृहद् टीकायें काफी लोकप्रिय मानी जाती हैं। _ पुरानी हिन्दी(ढूंढारी) भाषा में भी १८१६ वीं शती के विश्रुत विद्वान् पं० सदासुख दासजी कासलीवाल ने भी तत्त्वार्थसूत्र पर एक लघुटीका तथा “अर्थ प्रकाशिका" नामक वृहद् टीकायें लिखीं। इस प्रकार इस सूत्र-ग्रन्थ पर अनेक विद्वानों ने विविध टीकायें लिखकर अपनी लेखनी को सार्थक किया है। . पूर्वोक्त अनेक टीका-ग्रन्थों में से आ० देवनन्दि पूज्यपाद और उनकी सर्वार्थसिद्धि टीका तथा आ० अकलंकदेव एवं उनके द्वारा लिखित तत्त्वार्थवार्तिक का सक्षेप में तुलनात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत है___आचार्य पूज्यपाद और उनकी सर्वार्थसिद्धि नामक टीका ग्रन्थ के प्रणेता आ० देवनन्दि पूज्यपाद छठी शती के ऐसे महान् आचार्य हैं, जिनमें कवि, वैयाकरण और दार्शनिक-इन तीनों व्यक्तित्वों का एकत्र रूप में समवाय पाया जाता है। कर्नाटक में "कोले" नामक ग्राम के मूल ब्राह्मण कुल में जन्मे एवं देवनन्दि मूल नाम से प्रसिद्ध आचार्य पूज्यपाद अपनी बुद्धि व प्रखरता के कारण “जिनेन्द्रबुद्धि" एवं दोनों द्वारा चरणों की पूजा किये जाने के कारण “पूज्यपाद” नाम से काफी प्रसिद्ध हैं। परवर्ती अनेक आचार्यों ने अपनी कृतियों में आपकी ज्ञानगरिमा और महत्ता का उल्लेख करते हुए स्तुति की है। ज्ञानार्णव नामक ध्यान-योग-शास्त्र के महान् ग्रन्थ में आ० शुभचन्द्र ने इनकी प्रतिभा का उल्लेख करते हुए कहा है