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जैन- न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
से समृद्ध किया, वहीं पर अपनी करुणा, आत्मीयता और संवेगशीलता .को जन-जन तक विस्तीर्ण कर भगवान महावीर की सत्वेषु मैत्री की अवधारणा को भी संवर्द्धित किया। मध्यप्रदेश की प्रज्ञान स्थली सागर में मुनिराज का प्रथम चातुर्मास, तपश्चर्या की कर्मस्थली बना और यहीं
शुरु हुआ आध्यात्मिक अन्तर्यात्रा का वह अथ जिसने प्रत्येक कालखण्ड में नये-नये अर्थ गढ़े और संवेदनाओं की समझ को साधना की शैली में अन्तर्लीन कर लिया ।
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आगामी वर्षों में मुनि ज्ञानसागर जी ने जिनवाणी के आराधकों से स्थापित किया एक सार्थक संवाद ताकि आगम ग्रन्थों में निबद्ध रहस्यों को सामान्य जमों तक बोधगम्य भाषा और शैली में सम्प्रेषित किया जा सके। सरधना, शाहपुर, खेकड़ा, गया, राँची, अम्बिकापुर, मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर में विद्वत्संगोष्ठियों के आयोजन ने बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों के जहाँ एक ओर उत्तर खोजे वहीं दूसरी ओर शोध एवं समीक्षा के लिये नये सन्दर्भ भी परिभाषित किये गये । अनुपलब्ध ग्रन्थों के पुनर्प्रकाशन की समस्या को इस ज्ञान-पिपासु ने समझा और सराहा। इस क्षेत्र में गहन अभिरुचि के कारण सर्वप्रथम बहुश्रुत श्रमण परम्परा के अनुपलब्ध प्रामाणिक शोध - ग्रन्थ, स्व० डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा सर्जित साहित्य सम्पदा तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ( चारों भाग ) के पुनर्प्रकाशन की प्रेरणा की, जिसे सुधी श्रावकों ने अत्यल्प समयावधि में परिपूर्ण भी किया। इतना ही नहीं, आधुनिक कालखण्ड में भुला दिये गये सन्तों एवं विद्वानों के कृतित्व से समाज को परिचित कराने का भी गुरुकार्य इन्होंने किया, जिसकी परिणतिस्वरूप आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ के प्रकाशन से एक ओर विस्मृत से हो रहे उस अत्यन्त पुरातन साधक से समाज परिचित कराया जिसने सम्पूर्ण उत्तर भारत में दिगम्बर श्रमण परम्परा को उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अभिवृद्ध करने का गुरु-कार्य किया था तो दूसरी ओर सुप्रसिद्ध जैन दर्शन-विद् स्व० पं० महेन्द्र कुमार जैन न्यायाचार्य की स्मृति में एक