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श्री नेमिनाथ-चरित * 423 उनके निकट दीक्षा ले ली। अनेक लोगों ने श्रावक धर्म को भी स्वीकार किया। इसके बाद भगवान् ने 536 साधुओं के साथ पादोपगमन अनशन किया और अषाढ़ शुक्ला 8 के दिन चित्रा नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, भगवान ने संध्या के समय उन मुनियों के साथ निर्वाण प्राप्त किया।
प्रद्युम्न, शाम्ब आदिकुमार, कृष्ण की आठ पटरानियां भगवान के अनेक भ्राता तथा अन्यान्य साधु और राजीमती आदि साध्वियों ने भी परम पद प्राप्त किया। श्रीरथनेमि ने चारसौ वर्ष गृहस्थावस्था में एक वर्ष छद्मस्थावस्था में और पांच सौ वर्ष केवली की अवस्था में व्यतीत किये। कुमारावस्था, छद्मस्थावस्था और केवल ज्ञानावस्था के विभाग से राजीमती की आयुस्थिति भी इतनी ही समझनी चाहिए। शिवादेवी और समुद्रविजय माहेन्द्र देवलोक में गये। अन्यान्य दशार्ह भी महर्द्धिकदेव हुए। कुमारावस्था में 300 वर्ष, छद्यस्थावस्था और केवली अवस्था में 700 वर्ष इस प्रकार नेमिप्रभु ने एक हजार वर्ष की आयु भोग की। नमिनाथ भगवान के निर्वाण से ठीक पांच लाख वर्ष बाद बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ प्रभु का निर्वाण हुआ। __ नेमिप्रभु का निर्वाण होने पर, सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से धनद ने एक शिविका उत्पन्न की। इसके बाद शक्र ने विधि पूर्वक भगवान के अंगों का पुजनकर, उनके शरीर को उस शिबिका पर स्थापित किया। देवताओं ने नैऋत्य दिशा में नाना प्रकार के रत्न की शिला पर गोशीर्षचन्दन समान सुगन्धित काष्टों की एक चिता तैयार की। सौधर्मेन्द्र ने वहां प्रभु की शिबिका ले जाकर, उस चिता पर उनका शरीर स्थापित किया। इसके बाद शक्र के आदेश से अग्निकुमार देवताओं ने चिता में अग्नि लगायी और वायुकुमारों ने उस अग्नि को प्रज्वलित किया। कुछ देर में, जब प्रभु का शरीर भस्म हो गया, तब मेघकुमारों ने क्षीर समुद्र के जल से उस चिता की अग्नि शान्त की। शक्र ईशानादि इन्द्रों ने भगवान की दाढ़ें ली। अन्यान्य देवों ने शेष अस्थियां, उनकी देवियों ने पुष्प, राजाओं ने वस्त्र और सर्वसाधारण ने नेमिप्रभु की चिता भस्म ग्रहण की। इसके बाद उस स्थान की वैडुर्य शिला पर इन्द्र ने वज्र द्वारा भगवान का नाम और उनके लक्षणादिक अंकित किये। इसके बाद सोधर्मेन्द्रादिक इन्द्र तथा समस्त लोग अपने अपने वासस्थान को लौट गये।