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श्री नेमिनाथ-चरित * 407 विदीर्ण हो गया। उन्होंने बलराम से कहा-“अहो! मुझे धिक्कार है कि नपुंसक की भांति इस समय मैं तटस्थ रहकर अपनी जलती हुई नगरी को देख रहा हूँ। मैं इस समय जिस प्रकार नगरी की रक्षा करने में असमर्थ हूँ, उसी प्रकार इस प्रलयकारी दृश्य को देखने में भी असमर्थ हूँ। इसलिए हे आर्य! शीघ्र कहो, कि इस समय हमें कहां जाना चाहिए? मुझे तो इस विपत्तिकाल में कोई भी अपना मित्र नहीं दिखायी देता।"
बलराम ने कहा- “हे बन्धों! ऐसे समय में विचलित न होकर धैर्य से काम लो। पाण्डव लोग हमारे मित्र और आत्मीय हैं। वे हमें भाई की ही तरह प्रेम करते थे। इसलिए चलो, हम लोग इस समय उन्हीं के यहां चलकर आश्रय ग्रहण करेंगे।"
कृष्ण ने कहा- "भाई ! मैंने तो उन लोगों को देश से निर्वासित कर दिया था, इसलिए मुझे वहाँ जाते हुए लज्जा मालूम होती है। अब मैं कौन सा मुँह लेकर उनके वहां जाऊँगा?"
बलराम ने कहा- "आप इस संकोच को हृदय से निकाल दीजिए। सजन पुरुष अपने हृदय में सदा उपकार को ही धारण करते हैं और अपकार को कुस्वप्न की भांति भुला दिया करते हैं। पाण्डव भी सज्जन हैं। आपने उन पर अनेक उपकार किये हैं। इसलिए इस विपत्ति काल में वे अपकार न कर, हमारा सत्कार ही करेंगे। मेरा दृढ़ विश्वास है कि वे कभी अकृतज्ञ न होंगे, इसलिए आप लज्जा संकोच छोड़कर उन्हीं के यहां चलने का निश्चय कीजिए।" __कृष्ण ने व्यथित हृदय से बलराम का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उन्होंने अन्तिम बार अपनी प्राणप्रिय नगरी पर एक दृष्टि डाली। इसके बाद वे बलराम के साथ पाण्डु मथुरा के लिए अग्नि कोण की ओर चल पड़े। ____ कृष्ण के चले जाने पर भी द्वारिका नगरी उसी तरह धाँय धाँय जलती रही। इस विपत्ति का शिकार न होने वालों में बलराम का एक पुत्र कुब्जवारक भी था। वह चरम शरीरी था। उसने राजमहल की अट्टालिका पर चढ़, दोनों हाथ उठा, उच्च स्वर से कहा- "इस समय मैं नेमिनाथ भगवान का शिष्य हूँ। कुछ समय पहले भगवान ने मुझे चरम शरीरी और मोक्षगामी बतलाया था। यदि जिनाज्ञा सच है, तो यह अग्नि क्यों जला रही है?"