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श्री नेमिनाथ-चरित * 405 वायु उत्पन्न किया। इस वायु के कारण चारों ओर से न जाने कितना तृणकाष्ट द्वारिका नगरी में खिंचकर इकट्ठा हो गया। प्राण भय से जो लोग भागकर नगर के बाहर चले गये थे, वे भी सब इस वायु से खिंचकर नगर में आ पड़े। इस प्रकार अगणित वृक्ष, बहत्तर कोटि नगर निवासी और साठ कोटि आस पास के लोगों को द्वारिका में एकत्र कर द्वैपायन ने उसमें आग लगा दी।
प्रलयकाल के वायु से प्रेरित और निबिड़ धूमसमूह से संसार को अन्ध बनाने वाली वह अग्नि देखते ही देखते चारों ओर फैल गयी और समूची नगरी धांय धांय जलने लगी। एक ओर वायु का प्रबल तूफान, दूसरी ओर अन्ध बनाने वाला धुआँ और तीसरी ओर आग की भयंकर लपटों ने लोगों को हत बुद्धि बना दिया। उन्हें अपनी रक्षा का कोई भी उपाय न सूझ पड़ा। वे एक दूसरे से चिपट-चिपटकर जहां के तहां खड़े रह गये और अग्नि में जल जल कर या धुएं में घुट-घुटकर अपना प्राण त्याग करने लगे। __बलराम और कृष्ण ने वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी का प्राण बचाने के लिए उनको एक रथ पर बैठाया, किन्तु असुर द्वारा स्तम्भित होने के कारण
उसके अश्व और बैल अपने स्थान से एक पद भी आगे न बढ़ सके। यह '- देखकर कृष्ण और बलराम स्वयं उस रथ को खींचने लगे, परन्तु उस स्थान से
आगे बढ़ते ही रथ के दोनों पहिये शाखा की भांति टूटकर गिर पड़े। यह देखकर वसुदेव आदि बहुत भयभीत हो गये और हे बलराम! हे कृष्ण! हमें बचाओं! हमें बचाओं! आदि कह कहकर करुण क्रन्दन करने लगे। इससे बलराम और कृष्ण बहुत खिन्न हो गये और किसी तरह अपने सामर्थ्य से उस स्थ को नगर के द्वार तक घसीट ले गये। परन्तु वहाँ पहुँचते ही उस असुर ने द्वार के किवाड़ बन्द कर दिये। यह देखकर बलराम ने उन किवाड़ों पर इतने वेग से पाद प्रहार किया, कि वे तुरन्त चूर्ण विचूर्ण हो गये, किन्तु मालूम होने लगा, मानों किसी ने उसको जकड़ रखा है।
इस पर भी बलराम और कृष्ण उस रथ को बाहर निकालने की चेष्टा करने लगे। यह देख, द्वैपायन ने प्रकट होकर उनसे कहा- "अहो ! आप लोग मोह में कितने फँसे हुए हो! मैंने पहले से ही कह दिया था कि तुम दोनों को छोड़कर और कोई जीता न बच सकेगा। फिर यह व्यर्थ चेष्टा क्यों कर रहे हो?"