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श्री नेमिनाथ-चरित * 391
कुछ दिनों के बाद एक दिन कृष्ण ने वीर को एकान्त में बुलाकर पूछा- “हे वीर ! केतुमंजरी तुम्हारे आदेशानुसार तुम्हारी सेवा और गृहकार्य आदि करती है या नहीं?"
वीर ने हाथ जोड़कर कहा—“भगवान् ! कहां वह राजकुमारी और कहां मैं ? मैं तो आपकी तरह उसकी भी समस्त आज्ञाएं सेवक की भांति शिरोधार्य करता हूँ। हे प्रभो ! उसके पीछे तो मेरा काम धंधा भी बन्द हो गया
कृष्ण
कृष्ण ने भौएँ चढ़ाकर कहा-“मैंने उसकी दासता करने के लिए तुम्हारे साथ उसका विवाह नहीं किया। उसे अब तुम राजकुमारी नहीं, किन्तु अपनी पत्नी समझो और पत्नी की ही तरह उससे सब काम लो। यदि वह सीधी तरह सब काम न करे तो तुम मार पीट भी कर सकते हो। यदि तुम ऐसा न करोगे, तो मैं तुम्हें कैदखाने में बन्द करवा दूंगा।" ___बेचारा वीर अपने भाग्य को कोसता हुआ अपने घर लौट आया। कृष्ण की यह कृपा उसके लिए भार रूप हो पड़ी थी, परन्तु अब क्या, अब तो गले पड़ा ढोल बजाने में ही शोभा थी। इसलिए घर आते ही उसने केतुमंजरी को एक फटकार सुनाते हुए कहां-"तूं निट्ठली होकर क्या बैठी रहती है ? कपड़ों के लिए जल्दी माड़ बना ला!"
केतुमंजरी तो उसका यह सेब देखकर सन्नाटे में आ गयी। उसने कहा"तूं क्या जानता नहीं है, कि मैं कौन हूँ ? मुझ पर हुकम चलाने के पहले आइने में अपना मुँह तो देख आ!" ____ कृष्ण ने तो वीर से मारपीट करने को भी कह दिया था, इसलिए केतुमंजरी के यह वचन सुनते ही, उसने एक रस्सी से उसको अच्छी तरह पीट दिया। इसे केतुमंजरी को बड़ा ही दुःख हुआ और उसने रोते-कल्पते अपने पिता के निकट जाकर इसकी शिकायत की। इस पर पिता ने कहा- "बेटी! मैं क्या करूं? तूने तो स्वयं कहा था, कि मुझे दासी होना पसन्द है, रानी होना नहीं।"
केतुमंजरी ने कहा—“पिताजी! मेरा अपराध क्षमा कीजिए। मैं अब