________________
60
Uvavaiya Suttam Su. 17
They were powerful like an elephant. They were patient like a bull. They were invincible like a lion. They were tolerant to sundry touches like the earth. They were always beaming like a well-fed fire.
नत्थि णं तेसि णं भगवंताणं कत्थइ पडिबंधे भवइ । से अ पडबंधे चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा – दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ । दव्वओ णं सचित्ताचित्त - मीसिएस दव्वेसु खेत्तओ गामे वा णयरे वा रण्णे वा खेत्ते वा खले वा घरे वा अंगणे वा कालओ समए वा आवलियाए वा जाव ... अयणे वा अण्णतरे वा दीह-काल-संजोगे भावओ कोहे वा माणे वा मायाए वा लोहे वा भए वा हासे वा -- एवं तेसिं ण भवइ । तेणं भगवंतो वासावासवज्जं अट्ठ गिम्ह-हेमंतिआणि मासाणि गामे एगराइआ णयरे पंचराइआ वासी चंदण- समाण - कप्पा सम-लेट्ठकंचणा सम- सुह- दुक्खा इहलोग-परलोग अप्पडिबद्धा संसार - पारगामी कम्म- णिग्धायणट्ठाए अब्भुट्टिआ विहरति ।। १७ ।।
उन पूजनीय साधुओं के कहीं पर भी किसी प्रकार का प्रतिबन्ध - आसक्ति का कारण या रुकावट नहीं थी और वह प्रतिबन्ध चार प्रकार का कहा गया है । वे चार प्रकार ये हैं- द्रव्य की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से तथा भाव की अपेक्षा से । द्रव्य की अपेक्षा से सचित्त, अचित्त और मिश्रित द्रव्यों में, क्षेत्र की अपेक्षा से गांव, नगर, जंगल, खेत, खलिहान, घर और आंगन में, काल की अपेक्षा से समय, आवलिका, ( आनप्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, दिन-रात, पक्ष, मास ) अयन - छ: मास, अन्य दीर्घकालिक संयोग में, तथा भाव की अपेक्षा से क्रोध, मान, माया, लोभ, भय अथवा हास्य में, उनका इस प्रकार का कोई प्रतिबन्ध - आसक्ति का हेतु नहीं था । वे श्रमण ( अनगार ) भगवन्त वर्षावास – चातुर्मास्य के चार महीने को छोड़कर ग्रीष्म-गर्मी तथा हेमन्त - सर्दी के काल इन दोनों के आठ