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Uvavaiya Suttam Sa. 17
से रहित, परिग्रह से रहित, ( संसार से जोड़ने वाले पदार्थों से मुक्त, संसार के प्रवाह में नहीं बहने वाले ) कर्म बन्ध के लेप-हेतुओं से रहित थे।
In that period, at that time, Sramaņa Bhagavān Mahāvīra had many monks as his disciples who were disciplined in. the practice of controls (samitis, etc.), in their movements, their words (expression), their begging, maintenance of their begging bowls and depositing their excreta. They also practised controls of the mind, words and body called guptis. They were inwardly inclined, never allowed their sense-organs to come in touch with ephemeral objects and were firmly rooted in celibacy. They were free from 'mine'-ness, free from the possession of objects (free from objects which established contact with mundane life, and also free from grief and misery) and free from factors which generated karma bondage.
कंसपातिव मुक्कतोआ संख इव निरंगणा जीवो विव अप्पडिहयगती जच्च-कणगंपिव जातरूवा आदरिस-फलगा विव पागडभावा कुम्मो इव गुत्तिदिआ पुक्खर - पत्तं व निरुवलेवा गगणमिव निरालंवणा अणिलो इव निरालया चंद इव सोमलेसा सूर इव दित्ततेआ सागरो इव गंभीरा विहग इव सव्वओ विप्पमुक्का मंदर इव अप्पकंपा सारयंसलिलं व सूद्ध-हिअया खग्गि-विसाणं व एगजाया भारंड-पक्खीं व अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंडीरा वसभो इव जायत्थामा सोहो इव दुद्धरिसा वसुंधरा इव सव्व-फास-विसहा सुहुअ-हुआसणे इव तेअसा जलंता ।
कांसे के पात्र में जैसे जल का लेप नहीं लगता है, उसी प्रकार वे अनगार स्नेह, आसक्ति आदि से रहित थे, जिस प्रकार शंख सम्मुखीन रंग से अप्रभावित रहता हैं, उसी प्रकार वे राग, द्वेष, निन्दा, प्रशंसा आदि से अप्रभावित थे, वे जीव के समान अप्रतिहत-निरोध रहित ( संयम लक्ष्य की