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उववाइय सुत्तं सिद्धस्त०
अलोगे पहिया सिद्धा लोयग्गे य पडिट्टिया । इहं बोंदि चइत्ता णं तत्थ गंतूण सिझई ||२||
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सिद्ध लोक के अग्रभाग में स्थित होते हैं । अतएव वे अलोक में जाने में रुक जाते हैं अर्थात् वे अलोक में नहीं जाते हैं । और इस मनुष्य लोक में देह का त्याग कर वे लोकाग्र – सिद्ध स्थान पर जाकर सिद्ध — कृत्य कृत्य होते हैं ||२||
They halt at aloka, the vast space,
They stay at the crest of the universe,
They discard their mortal frame right here, They attain there the coveted goal. 2
जं संठाणं तु इहं भवं चयं तस्स चरिमसमयं मि । आसी य पएसघणं तं संठाणं तहि तस्स || ३ ||
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मनुष्य शरीर का त्याग करते समय - अन्तिम समय में जो प्रदेशघन - आकार - नाक, कान, उदर आदि पोले अंगों की रिक्तता के विलय से • घनीभूत आकार बना था, वही आकार उन का वहाँ -- सिद्ध स्थान में होता है — रहता है ||३||
There they have a similar form,
As they had here in human frame, With many a space-point giving it shape, The form exactly when breathing his last. 3
दहं वा हसं वा जं चरिमभवे हवेज्ज संठाणं । तत्ततिभागहीणं सिद्धाणोगाहणा भणिया ||४||