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________________ उववाइय सुतं सू० ४२ गौतम : सव्वे विणं भंते! महावीर : णो इण सम | 291 केवली समुग्धायं गच्छति ? अकित्ता णं समुग्धायं अणंता केवली जिणा । जरामरणविष्यमुक्का सिद्धिं वरगई गया || १ गौतम : हे प्रभो ! केवली किस कारण से समुद्घात - आत्म प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर विस्तीर्ण करते हैं— फैलाते हैं ? किस कारण, फैले हुए आत्म प्रदेशों की स्थिति को प्राप्त करते हैं ?. कर्माश सम्पूर्ण रूप में महावीर : गौतम ! केवलियों के ये चार अपरिक्षीण होते हैं - सर्वथा क्षीण नहीं होते हैं, जो इस प्रकार हैंवेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र । इन चार कर्मों में वेदनीय कर्म सब से अधिक होता है । आयुष्य कर्म सब से कम होता है । बन्धन - प्रदेश बन्ध और अनुभाग बन्ध, तथा स्थिति द्वारा विषम-उन कर्मों को वे सम करते हैं । इस प्रकार केवली बन्धेन एवं स्थिति द्वारा विषम कर्मों को • सम करने के लिये आत्मप्रदेशों को विस्तीर्ण करते हैं— उन्हें फैलाते हैं । अर्थात् समुद्घात करते हैं । वे समुद्घात को प्राप्त होते हैं । गौतम : भगवन् ! क्या सभी केवली समुद्घात को प्राप्त होते हैंसमुद्घात करते हैं अर्थात् आत्म प्रदेशों को विस्तीर्ण करते हैं ? महावीर : गौतम ! यह आशय संगत नहीं हैं - ऐसा नहीं होता है । समुद्घात किये बिना ही अनन्त केवली - जिन वीतराग ( जन्म ), जरा - वृद्धावस्था तथा मृत्यु से सर्वथा रहित होकर सिद्धि - सिद्धावस्था रूप सबसे उत्कृष्ट गति को प्राप्त हुए हैं ॥१ Gautama Bhante! Why does the Kevali spread the space-points of his soul? What is the reason for which he does so ? Mahāvira : Gautama ! In the case of the Kevalis, four
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
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