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________________ उववाइय सुत्तं सू० ३९ 231 मार्ग लम्बे एवं बड़े ही विकट थे। वे अटवी का कुछ भाग पार कर पाये थे कि चलते समय पहले ग्रहण किया हुआ जल बार-बार पीते-पीते क्रमशः समाप्त हो गया। Then the said Parivrājakas reached a certain part of a long forest, which had no village and where neither roving merchants nor wandering cattle halted to take rest. Being taken again and again at the outset, the water supply was exhausted. तए णं ते परिव्वायगा झीणोदगा समाणा तण्हाए पारब्भमाणा पारम्भमाणा उदगदातारमपस्समाणा अण्णमण्णं सद्दावेति । सद्दावित्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्ह इमीसे अगामिआए जाव...अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से उदय जाव...झीणे तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्ह इमीसे अगमियाए जाव...अडवीए उदगदातारस्स सव्वओ समंता मंग्गणगवेसणं करित्तए । .. तब वे परिव्राजक, जिनके पास का पानी समाप्त हो गया था, वे प्यास से व्याकुल हो गये थे। कोई जलदाता दिखाई नहीं दिया। वे एक दूसरे को सम्बोधित कर कहने लगे—अर्थात् वे परस्पर बातें करने लगे पुकार कर इस प्रकार कहने लगे हे देवानुप्रियों ! हम ऐसे ग्राम रहित जंग के किसी भाग में आ पहुँचे हैं, हम कुछ ही भाग पार कर पाये थे. हमारे पास जो पानी था, वह पीते-पीते क्रमशः समाप्त हो गया, अतएव हे देवानुप्रियों! हमारे लिये यही श्रेयस्कर है कि हम इस ग्राम रहित निर्जन वन में एक साथ चारों दिशाओं में चारों ओर पानी देने वाले की मार्गणा-गवेषणा-खोज करें। इस प्रकार उन्होंने परस्पर एक-दूसरे से चर्चा कर यह निश्चय किया। यह निश्चय कर उन्होंने उस ग्राम रहित वन में सभी दिशाओं में चारों ओर एक साथ जलदाता की मार्गणा-गवेषणा-खोज की।
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
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