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________________ 214 Uvavaiya Suttam Sh. 38 ___जो ये जीव ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, पत्तन, आश्रम, निगम, संवाह, तथा सन्निवेश में स्त्री के रूप में उत्पन्न होते हैं, इस प्रकार हैं : जो अन्तःपुर के भीतर निवास करती हैं, जिनके पति परदेश चले गये हों, जिनके पति मर गये हैं, जो बाल्यावस्था में विधवा हो गई हों, जो पतियों के द्वारा परित्यक्त कर दी गई हैं, माता द्वारा जिनका पालन-पोषण एवं संरक्षण होता है, जो पिता द्वारा संरक्षित हों, जो भाइयों द्वारा रक्षित हों, जो कुलगृह-पीहर के अभिभावकों के द्वारा रक्षित हों, जो श्वसुर-कुल' के अभिभावकों द्वारा रक्षित हों, जो पति या पिता आदि के मित्रों, अपने हितैषियों-मामा, नाना, काका आदि सम्बन्धियों, अपने सगोत्रीय-देवर, जेठ आदि पारिवारिक जनों के द्वारा संरक्षित हों, विशेषपरिष्कार तथा विशिष्ट संस्कार के अभाव में जिनके नख, केश, काँख के बाल .. बढ़ गये हों, जो पुष्प, सुगन्धित पदार्थ, और मालाएँ धारण नहीं करती हों, जो अस्नान-स्नान का अभाव, स्वेद-पसीने, जल्ल-रज, मल्ल-सूख कर शरीर पर जमे हुए मैल, पंक-पसीने से गीले हुए मैल से. पीड़ित या दुःखित रहती हों, जो दूध, दही, मक्खन, घृत, तैल, गुड़, नमक, मधु, मद्य, तथा मांस-इन सब से रहित आहार करती हों, जिनकी इच्छाएं. बहुत ही कम हों, जिनके धन, धान्य आदि परिग्रह बहुत ही कम हों, अल्पारम्भ-अल्पसमारम्भ-जो बहुत कम जीव-हिंसा तथा जीव-परितापन के द्वारा अपनी आजीविका चलाती हों, अकाम-मोक्ष की इच्छा अथवा लक्ष्य के बिना जो ब्रह्मचर्य का परिपालन करती हों, पति-शय्या का उल्लंघन नहीं करती हों अर्थात् उपपति स्वीकार नहीं करती हों-इस प्रकार के आचरण द्वारा अपना जीवन यापन करती हों, अवशेष वर्णन पिछले सूत्र के समान हैं। अर्थात् वे स्त्रियां बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हुए, आयुष्य पूर्ण कर, मृत्यकाल आने पर शरीर का त्याग कर वाण-व्यन्तर देवलोको में से किसी देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होती हैं। प्राप्त देवलोक के अनुरूप उनकी अपनी विशेष गति, स्थिति तथा उपपात-उत्पत्ति होती है। वहां इनकी स्थिति-आयुष्य परिमाण चौसठ हजार वर्षों की होती है, ऐसा बतलाया गया है ॥८॥ ___women living in villages, mines, towns, etc., etc., residing in the harem, whose men have gone out of the country, who have become widows in rather young age, who have been
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
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