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________________ उववाइय सुत्तं सू० ३४ 185 करता है। फलतः वे नरयिक कम करके विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते - हैं। वे स्थान--कारण इस प्रकार हैं : (१) महारम्भ-घोर हिंसा के भाव और कर्म । (२) महापरिग्रह-अत्यधिक संग्रह के भाव अथवा वैसा ही आचरण। (३) पञ्चेन्द्रिय वध-मनुष्य, तिर्यञ्च, पशु-पक्षी आदि पांच इन्द्रियों वाले प्राणियों की हिंसा अर्थात् उनके प्राणों का हनन करना। (४) मांस भक्षण-मांसाहार करना । He added further : In this manner, on account of the following four reasons, a soul'acquires karma giving life in a hell as an infernal being and is born in a hell : excessive slaughter of life, excessive accumulation, killing of a five organ being and taking.meat. . एवं एएणं अभिलावेणं तिरिक्खजोणिएसु माइल्लयाए णिअडिल्लाए अलिअवयणेणं उक्कंचणयाए वंचणयाए। मणुस्सेसु पगतिभद्दयाए पगतिविणीतताए साणुक्कोसयाए अमच्छरियताए । देवेसु सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं अकामणिज्जराए बालतवोकम्मेणं । इस प्रकार इस अमिलाप–सूत्र पाठ से जीव तिर्यञ्च योनिकों में उत्पन्न होते हैं : (१) मायापूर्ण निकृति-छलपूर्ण जालसाजी से, (२) अलीक वचन-मिथ्यापूर्ण भाषण करने से, (३) उत्कचनता-झूठी प्रशंसा करने से अथवा किसी मूर्ख व्यक्ति को ठगने वाले धूर्त का समीपवर्ती चतुर पुरुष के संकोच से क्षण भर के लिये निश्चेष्ट रहना या अपनी धूर्तता को छिपाए हुए रखना, (४) वंचनता-ठगी अथवा प्रतारणा। जीव जिन स्थानोंकारणों से मनुष्य योनि में उत्पन्न होते हैं, वे कारण इस प्रकार हैं : (१) प्रकृति भद्रता-स्वाभाविक सरलता-भलापन, जिससे किसी को हानि या भीति की आशंका न हो, (२) प्रकृति विनीतता-स्वाभाविकविनम्रता, (३) सानुक्रोशता-सदयता या करुणाशीलता, (४) अमत्सरईया का अभाव । जीव चार स्थानों-कारणों से देव योनि का आयुष्य
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
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