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उववाइय सुत्तं १२ उपांगों में प्रथम उपांग है, जिसे ओववाइय और औपपातिक भी कहा जाता है । उववाइय प्रथम उपांग है तो आचारांग प्रथम अंग है । सामान्यतया यह अपेक्षा रहती है कि अंग के पूरक उपोग होंगे ; क्योंकि अंग भी बारह तथा उपांग भी बारह । फिर क्रमशः उनका सम्बन्ध भी माना जाता है अर्थात् अमुक अंग का अमुक उपांग । 'उप' प्रत्यय मुख्यतः पूरक रूप में ही आता है, जैसे, आचार्य - उपाचार्य, कुलपति — उपकुलपति । पर, १२ अंगों तथा उनके उपांगों में ऐसा कोई तालमेल उनकी विषय-वस्तु से प्रतीत नहीं होता । खींचतान कर वैसा अभिहित करना भी यथार्थ नहीं लगता । वस्तुस्थिति यह लगती है कि प्राचीन काल से चार वेदों के भी चार उपांग माने जाते आ रहे हैं । उनकी भी पूरकता संदिग्ध जैसी ही है अर्थात् खींचतान की सी रही है । पर, समसामयिक जो भी क्रम चल पड़ता है, उसे दूसरी परम्पराएं भी अपनाती हैं। लगता है, उसी क्रम में जैन शास्त्रकारों ने भी १२ अंगों के साथ १२ उपांगों की संयोजना की है। समसामयिक स्थितियों का एकदूसरे से कैसे आदान-प्रदान होता है, उसका भी एक सुन्दर उदाहरण यह है । जैन शास्त्रों में 'जिन' शब्द है, पर अनुयायिओं के लिए कहीं भी जैन शब्द का व्यवहार नहीं हुआ है। पर, जिस युग में संस्कृत का प्रभाव व्यापक डुंगा, तब 'जिनो देवता यस्य सः जैनः' अर्थात् जिन हैं, जिसके देवता, वह 'जैन कहलाता है । आश्चर्य की बात है कि लगभग उसी युग में तथा
संस्कृत व्याकरण की उसी शृंखला में बौद्ध, शैव, वैष्णव आदि नाना धर्मों
के नाम प्रचलित हो गये, जो अब भी चालू हैं । अस्तु, इस स्थिति में हमें rai नहीं होना चाहिए कि युगीन प्रवाह में अंगों के साथ उपांग शब्द • आया हो ।
दूसरी बात विषय संबद्धता न भी हो तो भी जिन-जिन ग्रन्थों को हमें अंग शास्त्र जैसा दर्जा देना हो, उन-उन शास्त्रों को उपांग कहा जाए। आज भी तो आचार्य नहीं, पर, आचार्य जैसा, वह है उपाचार्यं । अतः अंग व उपांग का विषय किसी विवाद या लम्बी समीक्षा का नहीं । नही वह ऐसी किसी संदिग्धता में उलझा हुआ है ।
प्रश्न होता है, श्यामाचार्य कृत 'पन्नवणा' जैसे आगमों को बाद देकर 'उववाइय सुत्तं' को ही बारह उपांगों में प्रथम स्थान दिया, इसका क्या कारण ? उत्तर स्पष्ट है, यह आगम नगर, वन-खण्ड आदि नाना वर्णतों से भरा है । अन्य आगमों में उन उन वर्णनों के लिए 'उववाइय सुत्तं' को
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