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उववाइय सुत्तं सू० २० ।
लगने वाले दोषों को गुरु या ज्येष्ठ साधु के समक्ष प्रकट करना, उन दोषों की आलोचना करना आलोचना प्रायश्चित्त है। (२) प्रतिक्रमणाह-पांच समिति और तीन गुप्ति के सम्बन्ध में सहसाकारित्व आदि से लगने वाले दोषों के सन्दर्भ में 'मिच्छा मे दुक्कड़' मेरा दुष्कृत या पाप मिथ्या हो, निष्फल हो, इस प्रकार चिन्तनपूर्वक पश्चात्ताप करना प्रतिक्रमणाह प्रायश्चित्त है। (३) तदुभयाह-आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों से होने वाला प्रायश्चित्त तदुभयाह कहलाता है। (४) विवेकाह-ज्ञान पूर्वक त्याग के द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त विवेकाह है। (५) व्युत्सर्हिकायोत्सर्ग के द्वारा निष्पन्न होने वाला प्रायश्चित्त व्युत्सर्हि है अर्थात् मल-मूत्र आदि के परिष्ठापन में, नदी पार करने में अनिवार्यतः आसेवित दोषों की विशुद्धि के लिये यह प्रायश्चित्त लिया जाता है। (६) तपोऽर्ह--सचित्त वस्तु को . स्पर्श करने, आवश्यक आदि समाचारी, प्रतिलेखन, प्रमार्जन आदि नहीं करने से जो दोष लग जाते हैं, उनकी शुद्धि के लिये यह तपोऽर्ह प्रायश्चित्तं लिया जाता है। (७) छेदाह-- सचित्त-विराधना, प्रतिक्रमण-अंकरणता आदि के कारण लगे हुए दोषों की शुद्धि-हेतु यह छेदाह . प्रायश्चित्त है। इस प्रायश्चित्त में पाँच दिन से लेकर छः महीने तक के दीक्षा-पर्याय की न्यूनता करने का विधान है। (८) मूलाह-प्रायश्चित्त योग्य दूषित स्थान के तीन बार सेवन, मैथन, रात्रि भोजन आदि के द्वारा चरित्र भंग, किसी भी महाव्रत का जानबूझ कर खण्डन करने पर जो पुनः दीक्षा दी जाती है, उसे मूलाई प्रायश्चित्त कहते हैं। (९) अनवस्थाप्याह-प्रायश्चित्त के रूप में दिये गए. अमुक प्रकार के विशिष्ट तप को जब तक न कर लिया जाए, तब तक उस श्रमण का संघ से सम्बन्ध विच्छेद रखना, उसे पुनः दीक्षा नहीं देना, यह अनवस्थाप्याई प्रायश्चित्त कहलाता है। (१०) पाराञ्चिकाह-संघ से सम्बन्ध विच्छेद कर और विशिष्ट तप का अनुष्ठान कराकर गृहस्थ भूत . बनाना महाव्रतों की पुनः प्रतिष्ठापना करना पाराञ्चिकाई प्रायश्चित्त है। इस प्रकार यह प्रायश्चित्त का स्वरूप है ।
What is atonement ?
It has ten types, viz., submission to/discussion with the spiritual master (preceptor) of lapses in daily routine, prati