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दिगम्बर जैन मुनि शाकाहार प्रवर्तक उपाध्यायश्री ज्ञानसागरजी महाराज
संक्षिप्त परिचय अनासक्त अपरिग्रही और सतत ज्ञानाराधक परम पूज्य उपध्यायश्री ज्ञानसागर जी मुनिराज भारत की गरिमामयी श्रमण-संस्कृति, संत-परंपरा
और समाज सुधार के जीवन्त प्रतीक हैं । उपाध्यायश्री के सत्प्रयासों से शाकाहार के प्रचार को एक नयी चमक मिली है ।
सन् १९५८ की वैशाख शुक्ला द्वितीया को मुरैना (म० प्र०) में जनमे उमेशकुमार की जीवन यात्रा आत्मबोध के साथ प्रारम्भ होकर सन् १९७६ में क्षुल्लक श्री गुणसाग़र के रूप में प्रतिफलित हुई । फिर बारह वर्ष पश्चात् ३१ मार्च १९८८ को आचार्यश्री सुमतिसागरजी महाराज से जैन मुनि-दीक्षा प्राप्तकर श्रीज्ञानसागरजी महाराज के नाम से प्रख्यात हुए। समाज कल्याण के लिए उन्होंने सागर (म० प्र०) से बिहार कर मेरठ, दिल्ली, बड़ागाँव, बड़ौत, गाजियाबाद; मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, शाहपुर (उ० प्र०) सहित उत्तर भारत के पश्चात् गया, रांची, पेटरवार, पुरुलिया, सराक क्षेत्र तड़ाई तथा तीर्थराज सम्मेदशिखरजी सहित पूर्वी भारत में बिहार, बंगाल और उड़ीसा में प्रवास किया तथा शाकाहार प्रचार-प्रसार के लिए अनेक सार्थक प्रयास किये। बिहार प्रान्त में सन् १९९१ से १९९४ तक लगातार चार वर्षों के प्रवास काल में आपकी प्रेरणा से सराक (सरावगी) जाति के उत्थान के लिए अनेक योजनाएँ बनीं और उनका सफलतापूर्वक क्रियान्वयन भी हुआ तथा बिहार, बंगाल और उड़ीसा के सराकों का सर्वेक्षण भी इसी काल में कराया गया । उपाध्यायश्री ने उत्तर तथा पूर्वी भारत के बाद तिजारा, अलवर, भरतपुर, मथुरा, बड़ौदामेव (राजस्थान) रेवाड़ी, गुडगाँव (हरियाणा) में शाकाहार को एक नयी दिशा प्रदान की।
उपाध्यायश्री की ज्ञानगंगा कभी भी पंथों, जातियों या संप्रदायों की परिधि में सिमटकर नहीं बहती। वह धारा तो बिना किसी भेदभाव के हर जाति, धर्म और आस्था वाले लोगों के बीच करुणाधारा के रूप में प्रवाहित होकर अहिंसा और विश्वशांति के अंकुर उगाती है।