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परिशिष्ट-१ : कुछ विचारणीय बिन्दु २५३ प्रमेयकमलमार्तण्ड में कुछ नहीं लिखा गया है । अतः अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत के विषय में यहाँ विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत हो रहा है ।
· श्रुत शब्द के दो अर्थ होते हैं-(१) श्रुतज्ञान और (२) शास्त्र या आगम । अक्षरश्रुत और अनक्षर श्रुत श्रुतज्ञान रूप नहीं है किन्तु आगमरूप या शब्दरूप हैं । अक्षररूपमें लिखित अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में जितना भी आगम साहित्य उपलब्ध है वह सब अक्षरश्रुत के अन्तर्गत आता है । वर्तमान में षट्खण्डागम, कषायप्राभृत, समयसार, गोम्मटसार आदि जो भी आगम ग्रन्थ हैं वे सब अक्षरश्रुत हैं । - इस प्रकरण में यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि क्या गौतम गणधर ने
आचारांग आदि द्वादशांगरूप अंगप्रविष्ट श्रुत की तथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव आदि अंगबाह्य श्रुत की लिखितरूप में रचना की थी ? परन्तु ऐसा नहीं है । इस विषय में सिद्धान्ताचार्य श्री पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने 'अंगश्रुत के परिप्रेक्ष्य में पूर्वगत श्रुत' शीर्षक लेख में लिखा है___ "तीर्थंकर महावीर की धर्मदेशना का आप्यायन कर इन्द्रभूमि गौतम गणधर ने जिस अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत को निबद्ध किया वह सदा ही गुरुपरम्परा से वाचना द्वारा प्राप्त होकर ज्ञानगम्य ही रहा है, पुस्तकारूढ कभी नहीं हो सका ।" .
. पं० जी का यह लेख पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित हुआ है । पं० जी के उक्त कथन से यही प्रतीत होता है कि अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य श्रुत लिखितरूप में कभी नहीं रहा । यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि तब 'गणधर गूंथे बारह सु अंग' इस कथन का मतलब क्या है ? इसका मतलब यही है कि गौतम गणधर ने जिस श्रुत को गूंथा उसे अपने ज्ञान में ही वैसा किया, अक्षरश्रुत के रूप में नहीं । इसका तात्पर्य यही है कि आचारांग आदि द्वादशांग रूप आगम लिखितरूप में कभी रहा ही नहीं है । यहाँ इतना अवश्य ज्ञातव्य है कि भगवान् महावीर के बाद इस काल में सर्वप्रथम लिखित आगम षट्खण्डागम ही है जो दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग का एक अंशमात्र है ।
ऊपर अक्षरश्रुत के विषय में संक्षिप्त विवेचन किया गया है । अक्षरश्रुत को समझना सरल है । किन्तु अनक्षरश्रुत क्या है यह स्पष्ट नहीं हो रहा है।