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________________ षष्ठ परिच्छेद: सूत्र २७-३४ भी रहता है वह अनैकान्तिक हेत्वाभास कहलाता है । इसके दो भेद हैंनिश्चितविपक्षवृत्ति और शंकितविपक्षवृत्ति । २१५ निश्चितविपक्षवृत्ति का उदाहरण निश्चितविपक्षवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् ॥ ३१ ॥ शब्द अनित्य है, प्रमेय होने से, घट की तरह । यहाँ अनित्यत्व साध्य है और प्रमेयत्व हेतु है । प्रमेयत्व हेतु पक्ष ( शब्द ) में, सपक्ष (घट) में रहने के साथ ही विपक्ष ( नित्य वस्तुओं ) में भी निश्चितरूप से रहता है अतः यह निश्चितविपक्षवृत्ति नामक अनैकान्तिक हेत्वाभास है । इस हेतु की विपक्ष में वृत्ति कैसे निश्चित है इस बात को बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं अकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ॥ ३२ ॥ पूर्वोक्त अनुमान में नित्य आकाश विपक्ष है और प्रमेयत्व हेतु का विपक्ष में रहना निश्चित है । क्योंकि आकाश भी घटादि की तरह प्रमेय है । शंकितविपक्षवृत्ति का उदाहरण शङ्कितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ॥ ३३॥ सर्वज्ञ नहीं है, वक्ता होने से । यहाँ असर्वज्ञ पक्ष है, रथ्यापुरुष सपक्ष है और सर्वज्ञ विपक्ष है । वक्तृत्व हेतु पक्ष और सपक्ष में तो रहता ही है, किन्तु विपक्ष (सर्वज्ञ) में रहता है कि नहीं इस बात में सन्देह है । अतः यह शंकितविपक्षवृत्ति नामक अनैकान्तिक हेत्वाभास का उदाहरण है । वक्तृत्व हेतु की विपक्ष में रहने की शंका क्यों होती है इस बात को बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ॥ ३४॥ सर्वज्ञत्व के साथ वक्तृत्व का कोई विरोध न होने से यह शंका होती है कि वक्तृत्व विपक्ष ( सर्वज्ञ ) में भी क्यों नहीं रह सकता है ? यहाँ यह भी स्मरणीय है कि ज्ञान के उत्कर्ष में वक्तृत्व का अपकर्ष न होकर उत्कर्ष ही देखा जाता है । इसलिए सर्वज्ञ में वक्तृत्व पाये जाने की पूरी पूरी संभावना है ।
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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