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तृतीय परिच्छेद : सूत्र ९०-९५
१३५ जाता है वह विधिसाधक अविरुद्ध कार्योपलब्धि हेतु है, उसी प्रकार कार्य के कार्य को देखकर कारण का जो अनुमान किया जाता है उस हेतु का अन्तर्भाव अविरुद्ध कार्योपलब्धि में ही हो जाता है ।।
इसी प्रकार प्रतिषेधसाधक कारणविरुद्ध कार्य हेतु का अन्तर्भाव विरुद्धकार्योपलब्धि में किया जाता है । इसका उदाहरण इस प्रकार हैनास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिसंशब्दनात् कारणविरुद्धकार्य विरुद्धकार्योपलब्धौ यथा ॥९३॥
इस गुहा में मृग की क्रीड़ा नहीं है, मृगारि ( सिंह ) का शब्द होने से । मृगक्रीड़ा का कारण है मृग, उसका विरुद्ध है मृगारि और उसका कार्य है मृगारि का शब्द । यहाँ मृगक्रीड़ा के कारण मृग के विरुद्ध सिंह के कार्यभूत शब्द को सुनकर मृगक्रीड़ा का निषेध किया गया है । इस कारणविरुद्ध कार्य हेतु का अन्तर्भाव विरुद्धकार्योपलब्धि में किया जाता है । जिस प्रकार प्रतिषेधसाधक विरुद्ध कार्योपलब्धि में विरुद्ध के कार्य को देखकर किसी का निषेध किया जाता है, उसी प्रकार यहाँ भी कारण के विरुद्ध के कार्य को देखकर किसी का निषेध किया जाता है । अत: यह पृथक् हेतु नहीं है, किन्तु वह,विरुद्धकार्योपलब्धिरूप ही है । ____हेतु का पूर्णरूप से विवेचन कर देने के बाद अब यह बतलाना है कि व्युत्पन्न व्यक्तियों को समझाने के लिए उदाहरणादि के प्रयोग की कोई आवश्यकता नहीं है । इसी बात को यहाँ बतलाया जा रहा है
व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्यान्यथानुपपत्त्यैव वा ॥१४॥
व्युत्पन्न पुरुषों के लिए तथोपपत्तिरूप अथवा अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु • का प्रयोग ही पर्याप्त है । उनके लिए उदाहरणादि का प्रयोग सर्वथा अनुपयोगी
साध्य के होने पर हेतु का होना तथोपपत्ति कहलाता है और साध्य के • अभाव में हेतु का नहीं होना अन्यथानुपपत्ति है । अर्थात् अविनाभावी हेतु के प्रयोगमात्र से व्युत्पन्न पुरुषों को साध्य और साधन के विषय में सब कुछ समझ में आ जाता है । इसी बात को उदाहरण द्वारा समझाते हैंअनिमानयं देशस्तथा धूमवत्त्वोपपत्तेधूमवत्त्वान्यथाथानुपपतेर्वा ॥१५॥