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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र २
४७ मीमांसकों ने अभाव प्रमाण की तरह अभाव को भी एक पृथक् पदार्थ माना है और उसके प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव ये चार भेद बतलाये हैं । इस विषय में जैनदर्शन की मान्यता यह है कि अभाव एक पृथक् पदार्थ नहीं है, किन्तु वह भावस्वरूप ही है । जैसे भूतल में घटाभाव कोई पृथक् पदार्थ न होकर घटरहित भूतल का नाम ही घटाभाव है । इसी प्रकार प्रागभाव आदि भी भावस्वरूप ही हैं । भाव से भिन्न कोई अभाव नहीं है । अभाव को भाव से सर्वथा पृथक् मानने पर तो वह अवस्तु ही हो जायेगा । यदि अभाव अवस्तु है तो उसका ज्ञान भी संभव नहीं है । खरविषण, गगनकुसुम आदि अवस्तुभूत पदार्थों का ज्ञान किसी को नहीं होता है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि मीमांसकों द्वारा अभाव प्रमाण को एक पृथक् प्रमाण मानना तथा अभाव को एक पृथक् पदार्थ मानना तर्कसंगत नहीं है ।
शक्तिसद्भाव विचार पूर्वपक्ष
नैयायिकों का मत है वह्नि आदि पदार्थों का जो स्वरूप है उसकी प्रतीति प्रत्यक्ष से ही हो जाती है । इसके अतिरिक्त अन्य किसी अतीन्द्रिय शक्ति के सद्भाव को बतलाने वाला कोई प्रमाण नहीं है । पृथिवी आदि की निज शक्ति पृथिवीत्वादि ही है । पृथिवीत्वादि के सम्बन्ध से ही पृथिवी आदि पदार्थ कार्य करते हैं । जो लोग पदार्थ से अतिरिक्त शक्ति मानते हैं उनसे पूछा जा सकता है कि शक्ति नित्य है या अनित्य । यदि शक्ति नित्य है तो सर्वदा कार्योत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होगा । यदि शक्ति अनित्य है तो इस विकल्प में भी प्रश्न होता है कि शक्ति की उत्पत्ति कैसे होती है-शक्तपदार्थ से या अशक्त पदार्थ से ? इत्यादि प्रकार से अनेक दोष आने के कारण यह विकल्प भी त्याज्य है । एक प्रश्न यह भी है कि शक्ति शक्तिमान् पदार्थ से अभिन्न है या भिन्न । शक्तिमान् पदार्थ से शक्ति को अभिन्न मानने पर केवल शक्तिमान् अथवा शक्तिमात्र का ही सद्भाव रहेगा, दोनों का नहीं । शक्ति को शक्तिमान् पदार्थ से भिन्न मानने पर यह शक्ति उस पदार्थ की है इसका नियामक क्या होगा । यह भी विचारणीय है प्रत्येक पदार्थ में एक शक्ति रहती है या अनेक । यदि शक्ति एक है तो उससे एक साथ अनेक कार्यों