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________________ आयारदसा ५५ विरमण, प्रत्याख्यान, और पौषधोपवास आदि का सम्यक् प्रकार से धारक नहीं होता। विशेषार्थ-प्रथम प्रतिमाधारी यद्यपि पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, और सामायिक आदि चार शिक्षाव्रतों का सम्यक् रीति से परिपालन नहीं करता है, परन्तु जिन-वचनों पर दृढ़ श्रद्धा होने से वह अपनी शक्ति के अनुसार उनका यथासंभव पालन करता है और सम्यग्दर्शन का निरतिचार निर्दोष पालन करता है । इस प्रतिमा के धारण करने वाले को दार्शनिक श्रावक कहते हैं। यहाँ यह भी विशेष ज्ञातव्य है कि इन प्रतिमाओं को उपासक दशा कहा गया है । जिसका अर्थ होता है-मुनिधर्म की उपासना करने वाला । सामान्य गृहस्थ का दैनिक कर्तव्य बतलाया गया है कि वह साधु की उपासना करे, उनके प्रवचन सुने और यथाशक्ति श्रावक के बाहर व्रतों में से जितने भी जैसे पाल सके, उनके पालन करने का अभ्यास करे। उपासक दशा सूत्र के अनुसार जब व्रतधारी श्रावक अपनी आयु को अल्प समझता है, तब वह इन ग्यारह दशाओं को यथा नियत-काल तक पालन करता हुआ जीवन के अन्तिम दिनों में संलेखना स्वीकार करके देह का परित्याग करता है । जब वह इन उपासक दशाओं को स्वीकार करता है तब प्रथम दशा का शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि-प्रशंसा और अन्यदृष्टि-संस्तव इन पांच अतिचारों का सर्वथा त्याग कर अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाता है। इस दर्शन प्रतिमा या पहली उपासक-दशा का काल एक-दो दिन से लेकर उत्कृष्ट एक मास बतलाया गया है । इसके साधन या आराधन काल में कोई देव या मनुष्य उसके सम्यग्दर्शन की दृढ़ता के परीक्षणार्थ कितना भी भयंकर उपसर्ग करे तो भी वह अपनी श्रद्धा से और जिन-प्रणीत धर्म से विचलित नहीं होता है । इस प्रथम दशा के लिए सम्यग्दर्शन की दृढ़ता आवश्यक है इसीलिए इसे दर्शनप्रतिमा कहा जाता है, अर्थात् इसका धारक सम्यक्त्व की साक्षात् मूर्ति होता है। सूत्र १८ (२) अहावरा दोच्चा उवासग-पडिमासव्व-धम्म-रुई यावि भवइ। तस्स णं बहूई सीलवय-गुणवय-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाई सम्म पटुवित्ताइं भवंति। से णं सामाइयं देसावगासियं नो सम्म अणुपालित्ता भवइ । से तं दोच्चा उवासग-पडिमा। (२)
SR No.002225
Book TitleChed Suttani Aayar Dasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherAagam Anyoug Prakashan
Publication Year1977
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size13 MB
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