________________
आयारदसा
अनाचार इन भेदों में विभाजित किया है । जैसे किसी व्यक्ति ने साधु को अपने घर. भोजन के लिए निमंत्रित किया, उस निमंत्रण को स्वीकार करना अतिक्रम दोष है । भोजन के लिए जाना व्यतिक्रम दोष है। पात्रादि में भोजन ग्रहण करना अतिचार दोष है और उस भोजन को खा लेना अनाचार दोष है । उक्त चार दोषों में से अनाचार दोष के लगने पर तो व्रतका सर्वनाश ही हो जाता है, अतः मूल गुणादि में आदि के अतिक्रमादि तीन दोष लगने तक ही 'शबल' जानना चाहिए। जैसा कि कहा है
मूलगुणेषु आदिमेषु भंगेषु शबलो भवति, चतुर्थभंगे सर्वभंगः । - शबल दोष का आचरण करने वाला साधु शबलाचरणी कहलाता है । उसे ही सूत्र में 'शबल' कहा गया है। अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि के द्वारा व्रत का जैसा अल्प या अधिक भंग होता है, उसके अनुसार ही अल्प या अधिक प्रायश्चित्त से शुद्धि होती है । सर्व पापों का यावज्जीवन के लिए परित्याग कर देने पर भी चारित्र मोहनीय कर्म के तीव्र उदय से साधु के भी जब कभी किसी न किसी व्रत में उक्त इक्कीस प्रकार के शबल दोषों में से किसी न किसी दोष का लगना सम्भव है, क्योंकि "मध्ये मध्ये हि चापल्यमामोहादपि योगिनाम्" अर्थात् जब तक मोहकर्म विद्यमान है, तब तक बड़े-बड़े योगियों के भी व्रत-पालन में चंचलता आती रहती है।
असमाधिस्थान के समान शबल दोषों की संख्या भी बहुत है, उन सबका भी इन ही इक्कीस भेदों में यथासम्भव अन्तर्भाव जानना चाहिए।
दूसरी शबलदोष-दशा समाप्त ।