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आयारदसा
जइ इमस्स तव-नियम जावअहमवि आगमेस्साए जाई इमाइं भवंति
"अंतकुलाणि वा, पंतकुलाणि वा, तुच्छकुलाणि वा, दरिद्द-कुलाणि वा, किवण-कुलाणि वा, भिक्खाग-कुलाणि वा, एसि णं अण्णतरंसि कुलंसि पुमत्ताए, पच्चायामि।
एस मे आया परियाए सुणीहडे भविस्सति ।" से तं साहू.।
नवम निदान हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है ।....यावत्....उद्दिप्त कामवासना के शमन के लिए तप-संयम की उग्र साधना द्वारा प्रयत्न करता हुआ कदाचित् दिव्य मानुषिक काम मोगों से वह विरक्त हो जाए-(उस समय वह इस प्रकार संकल्प करता है) मानुषिक काम-मोग अध्रव, अशाश्वत . ...यावत्...त्याज्य हैं।
दिव्य काम-भोग भी अध्र व...यावत्...भव परंपरा बढ़ाने वाले हैं। यदि इस नियम-तप एवं ब्रह्मचर्य-पालन का फल हो तो मैं भी भविष्य में अंतकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, कृपणकुल या भिक्षु कुल' इनमें से किसी एक कुल में पुरुष बनूं-जिससे मैं प्रवजित होने के लिए सुविधापूर्वक गृहस्थ छोड़ सकू।
सूत्र ४८
एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथो वा निग्गंथी वा जिवाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइए अपडिक्कते सव्वं तं चेव जाव
से णं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पम्वइज्जा?
१ इन कुलों में पारिवारिक ममत्व इतना अधिक नहीं होता जिससे प्रवजित
होने में अधिक विघ्न-बाधाएँ उपस्थित हों। यथा--इन कुलों की स्त्रियाँ प्रायः पूर्व पति को छोड़कर दूसरा पति स्वीकार कर लेती हैं, जिसे 'नाता' करना कहा जाता है। दास-दासी बनाने के लिए इन कुलों के बालकबालिकाओं का ही क्रय-विक्रय किया जाता है। दीक्षित होने पर अन्त्यज व्यक्ति भी राजा-महाराजाओं के वन्दनीय, पूज्यनीय हो जाता है अतः इन कुलों में उत्पन्न व्यक्ति के प्रव्रजित होने में अधिक विघ्न-बाधाएँ उपस्थित नहीं होती हैं। इस अपेक्षा से ही इन कुलों में उत्पन्न होने के संकल्प का यहाँ वर्णन है।