________________
१६५
. तीसे णं अतिजायमाणीए वा, निज्जायमाणीए वा, पुरतो महं दासी - वास जाव- किं भे आसगस्स सदति ?
आयारदसा
जं पासित्ता निग्गंथी णिदाणं करेति
" जइ इमस्स सुचरियस तव नियम- बंभचेर जाव - भुंजमाणी विहरामि ; साहु ।"
द्वितीय निदान
आयुष्मती श्रमणियो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है । यथा-य - यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है ... यावत् ... सब दुःखों का अन्त करते हैं ।
यदि कोई निर्ग्रन्थी केवलि प्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हो और भूख-प्यास आदि परिषह सहते हुए भी कदाचित् उसे कामवासना का प्रबल उदय हो जावे तो वह तप-संयम की उग्र साधना द्वारा उस कामवासना के शमन के लिए प्रयत्न करती है ।
उस समय वह निर्ग्रन्थी एक ऐसी स्त्री को देखती है जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राण - प्रिया है । वह एक सरीखे ( स्वर्ण के या रत्नों के) आभरण एवं वस्त्र पहने हुई है तथा तेल की कुप्पी, वस्त्रों की पेटी एवं रत्नों के करंडिये के समान वह संरक्षणीय है, और संग्रहणीय है ।
निर्ग्रन्थी उसे अपने प्रासाद में आते-जाते देखती है । उसके आगे अनेक दास-दासियों का वृन्द चलता है.. यावत् ... आपके मुख को कौन-से पदार्थ स्वादिष्ट लगते हैं ?
उसे देखकर निर्ग्रन्थी निदान करती है ।
यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्य पालन का फल हो तो मैं भी उस पूर्व वर्णित स्त्री जैसे मानुषिक काम भोग भोगती हुई अपना जीवन बिताऊँ ।
सूत्र २७
एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथी णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइआ अप्पक्कंता अणदिया अगरिहिया अविउट्टिया अविसोहिया अकरणाए अनन्मुट्ठिया अहारिहं पायच्छितं तवोकम्मं अपडिवज्जित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोएस देवित्ताए उववत्तारी भवइ महड्ढियासु जाव-सा णं तत्थ देवी भवति जाव - भुंजमाणी विहरति । सा ताओ देवलोगाओ
आउक्खणं, भवक्खणं, ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ताजे इमे भवंति उग्गपुत्ता महामाउया" ।
९ महासाउया ।