________________
१४८
छेदसुत्ताणि
देवकुलाणि य, सभाओ य पवाओ य पणियगिहाणि य, पणियसालाओ य छहा-कम्मंताणि य, वणियकम्मंताणि य कटकम्मंताणि य, इंगालकम्मंताणि य वणकम्मंताणि य, दम्भकम्मंताणि य जे तत्थेव' महत्तरगा आणत्ता चिट्ठति ते एवं वदह
छत्र पर कोरण्टकरे पुष्पों की माला धारण करके....यावत्....शशि समप्रियदर्शी नरपति श्रेणिक जहाँ बाह्य उपस्थान शाला में सिंहासन था वहाँ आया । पूर्वाभिमुख हो, उस पर बैठा । बाद में अपने प्रमुख अधिकारियों को बुलाकर उसने इस प्रकार कहा"हे देवानुप्रियो । तुम जाओ। जो ये राजगृह नगर के बाहर आराम
उद्यान, . शिल्पशाला
धर्मशाला
सभा प्रपा-(प्याऊ)
पण्य गृह-दूकान पण्यशाला-बिक्री केन्द्र (मंडी) मोजन शाला,
व्यापार केन्द्र, काष्ठ शिल्प केन्द्र,
कोयला उत्पादन केन्द्र, वन विभाग,
और घास के गोदाम :इनमें जो मेरे आज्ञाकारी अधिकारी हैं-उन्हें इस प्रकार कहो
देव कुल
"एवं खलु देवाणुप्पिया ! सेणिए राया भंभसारे आणवेइजदा णं समणे भगवं महावीरे, आदिगरे, तित्थयरे जाव-संपाविउकामे पुव्वाणुपुग्वि चरेमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहं सुहेण विहरमाणे,
१ तत्थ वरणमहत्तरगा २ कोरण्टक अनेक प्रकार का होता है यह पुष्प वर्ग की वनस्पति है। इसके
पुष्प पांचों वर्ण के होते हैं। -निघण्टु सार संग्रह, पृ० १३४