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आयारदसा.
१२५ • शयनाऽऽसनपट्टिकादीनां मानरूपा एकोनविंशतितमी समाचारी सूत्र ६७
वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा अणभिग्गहिय सिज्जासणियाणं हुत्तए ।
आयाणमेयं
अणभिग्गहिय सिज्जासणियणिस्स अणुच्चाकुइयस्स अणट्ठाबंधियस्स अमियासणियस्स अणातावियस्स असमियस्स अभिक्खणं अभिक्खणं अपडिलेहणासीलस्स अपमज्जणा सोलस्स तहा तहा संजमे दुरासहए भवइ ।
अणादाणमेयं,- .
अभिग्गहिय सिज़्जासणियस्स उच्चाकुइयस्स अट्टाबंधियस्स मियासणियस्स आयावियस्स समियस्स अभिक्खणं अभिक्खणं पडिलेहणासीलस्स पमज्जणासीलस्स तहा तहा संजमे सुआराहए भवइ ।८/६७।
उन्नीसवीं शयनासन पट्टादिमान-रूपा समाचारी वर्षावास रहे हुऐ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को शय्या और आसन ग्रहण किए बिना रहना नहीं कल्पता है।
शय्या और आसन नहीं रखना कर्म बन्ध का कारण है । क्योंकि (१) शय्या और आसन नहीं ग्रहण करने वाले, ' (२) एक हाथ से ऊँचा या नीचा, हिलने वाला और चूं-धूं करने वाला शय्या और आसन रखने वाले,
(३) हिलने वाले शय्या और आसन के तीन या चार से अधिक बन्धन लगाने वाले,
(४) परिमाण से अधिक शय्या और आसन रखने वाले, (५) यथासमय शय्या और आसन को धूप में नहीं सुखाने वाले, (६) एषणा समिति के अनुसार शय्या और आसन नहीं लेने वाले, (७) शय्या और आसन की उभय काल प्रतिलेखना नहीं करने वाले, तथा
(८) शय्या और आसन की प्रमार्जना नहीं करने वाले भिक्षु का संयम . दुराराध्य होता है । अर्थात् उस भिक्षु के संयम की आराधना विधिवत् नहीं होती है ।
शय्या और आसन रखना कर्म बन्ध का कारण नहीं है। क्योंकि (१) शय्या और आसन ग्रहण करने वाले,